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अव्यय
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स्थान पर 'खेडढ', रम्य के स्थान पर 'रवण्ण', अद्भुत के स्थान पर 'ठक्करि', पृथक पृथक के स्थान पर 'जुअंजुअ', हे सखि के स्थान पर 'हेल्लि', मूर्ख के स्थान पर 'नालिय' तथा मूढ के स्थान पर वढ का प्रयोग होता था-'दिवेहिं विढत्तउ खाइ वढ'।
8/4/422 नव के स्थान पर 'नवख' 'नवखी कवि विस गंठि', अवस्कन्द के स्थान पर 'दडवड' शब्द प्रयुक्त होता था। यह झटपट के अर्थ में भी प्रयुक्त होता था। 'दडवड होइ विहाण', यदि के स्थान पर 'छुडु'-'छुडु अग्घइ वव साउ' | सम्बन्धवाची केर और तण शब्द है। इसी केर से हिन्दी में का, के, की परसर्ग बना है।
8/4/423 कुछ ऐसे देशी शब्द हैं जो कि चेष्टाओं के अनुकरण में प्रयुक्त होते हैं। वे अधिकांश शब्द अव्यय के ही हैं किन्तु कभी कभी विभक्तियों के सहित भी प्रयुक्त होते हैं। 'हुहुर' शब्द चेष्टानुकरण में प्रयुक्त होता है-प्रेम द्रहि हहरुत्ति। 'कसरक्केहिं' का अर्थ है कचर कचर करके, परन्तु पी०, एल० वैद्य का कथन है कि इसका ठीक ठीक अनुकरणात्मक अर्थ नहीं बताया जा सकता। वस्तुतः इस अर्थ को देखते हुए "खज्जइ नउ कसरक्केहिं' में 'कचर कचर' कर अर्थ करना ही अधिक उचित प्रतीत होता है। 'घुटेहिं का अर्थ 'घुट घुट' शब्द करना होगा। घुग्घ शब्द चेष्टा के अनुकरण में प्रयुक्त होता है-जैसे ‘मक्कड घुग्घिउ देइं' बन्दर घुड़की देता है। उट्ठवईस'=उठना बैठना। इस शब्द को पी० एल० वैद्य ने मराठी का कहा है। उनके अनुसार मराठी में उट्ठवेस और उट्ठवश आदि चलता है।
____8/4/426 आचार्य हेमचन्द्र ने कुछ ऐसे शब्दों का निपात किया है जो कि निरर्थक होते हैं-अर्थात् उन शब्दों का प्रयोग भाषा प्रयोजन हीन होता है। संस्कृत में भी वे कुछ शब्द ऐसे हैं जो कि वाक्यों के प्रयोग में निष्प्रयोजन प्रयुक्त होते थे; फिर भी उसका अर्थ कुछ न कुछ हो ही जाता था। अपभ्रंश में भी यही बात रही। जैसे 'घइं विवरीरी बुद्धडी' में 'घइं' शब्द निरर्थक है फिर भी इसका 'नूनं' अर्थ किया जा सकता है।