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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
'तण' भी निपातन है। इसकी विशेषता है कि यह स्वतः विभक्तियों से जुड़कर प्रयुक्त होता है। इस तण का प्रयोग कभी षष्ठी
और कभी तृतीया विभक्ति के साथ हुआ है। सम्प्रदान के अर्थ में भी एक जगह यह प्रयुक्त हुआ है।
___ सम्प्रदान-वड्डत्तणहो तणेण (हे० 8/4/355) सं०-'महत्वस्य कृते' (बड़प्पन के लिये)
कहीं-कहीं यह तण स्वतः प्रत्यय की भाँति प्रयुक्त हुआ है-वड + तण + उ = (अपभ्रंश की विशेषता संज्ञा=अ को उ) = जिव जिव वड्डतणु लहहिँ (हे० 8/4/377), सं०-यथा यथा महत्वं लभन्ते यहाँ तण का प्रयोग कर्म के अर्थ में हुआ है। भाव के अर्थ में प्रत्यय की भाँति प्रयुक्त सा प्रतीत होता है। सं०-त्व या तल=(महत्ता, महत्व) हि०-'पन' (बड़प्पन प्रत्यय के अर्थ में हुआ है) कर्म कारक अर्थ में और जगह भी यह तण परसर्ग प्रयुक्त हुआ है:
जइ इच्छहु वड्डत्तण उं (हे० 8/4/384) तिलहं तिलत्तणु (हे0 8/4/406)
तृतीया विभक्ति से युक्त तण का प्रयोग होता है-केहि तणेण तेहि तणेण । महु तणइ (परमात्म प्रकाश 2/186)
सम्बन्ध-अह भग्गा अम्हहं तणा (हे० 8/4/380) इमु कुल तुल तणउं (हे० 8/4/361)
डॉ० तगारे ने तण का प्रयोग 600 ई० के पहले से ही माना है। महु तणइ मदीयेन (प प्र० 2/186) 1000 ईस्वी के समय इसका प्रयोग सम्बन्ध कारक के लिये होता था-'तसु तण इम' उदाहरण सावयव धम्म दोहा में पाया जाता है। पाहुड़ दोहा 88 में सिद्धत्तणहु तणेण और पा० दो० 214 में थरू डज्झइ इंदिय तणउ प्रयोग पाया जाता है। इन दो प्रयोगों में एक स्पष्ट रूप से षष्ठी का प्रयोग है और दूसरा मिश्रित प्रयोग है।