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रूप विचार
निज वाचक अप्प या अप्पण (आत्मन्) शब्द
एक०
प्रथमा -- अप्पा, अप्पो, अप्पाणो (महा० )
बहु०
अप्पाणो, अप्पा (महा०)
अप्पाणा (अ० मा० )
द्वि० - अप्पाणं (महा०, अ० मा०) अप्पं
अप्पणअं (महा० )
तृतीया - अप्पण (अ० मा०, जै० महा० अप्पेहिं, अप्प हिं
शौ०) अप्पेण, अप्पे, अप्पणेण,
अप्पणा, अप्पे, अप्पणें
पंचमी - अप्पह, अप्पहु, अप्पण,
अप्पाण, अप्पहो,
सम्बन्ध - अप्पणहो, अप्पणस्स,
अप्पणसु, अप्पणहो,
अप्पण
सप्तमी - अप्पे, अप्पि, अप्पी, अप्पेसु
"
अप्प, अप्पण
"
अप्पणहं, अप्पहं
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अप्पाहि अप्पणहिं
निज वाचक आत्मन शब्द का प्राकृत में त्त तथा प्प होता था । अपभ्रंश में अप्प तथा अप्पण दोनों प्रकार का प्रयोग पाया जाता है। हिन्दी आप शब्द की व्युत्पत्ति इसी अप्प से हुई है तथा अपना विशेषण वाचक शब्द अप्पण से बना है। अपभ्रंश में आत्मन् + क = अ=अप्पण शब्द का प्रचलन अधिक है । प्राकृत अप्प शब्द भी अपभ्रंश में प्रचलित है | हेमचन्द्र अपभ्रंश दोहों में दोनों शब्द प्रचलित है । 'अप्पउँ तडि घल्लन्ति' (हेम०), फोडेन्ति जे हियडउँ अप्पणउँ ताह पराई कवण घृणु (०) । अप्पणु का प्रयोग - 'अप्पणु जणु मारेइ' (हेम० ) । अप्पण - 'जो गुण गोवइ अप्पणा' (हेम० ) । अप्पाणु रूप भी पाया जाता है - पिये दिले हल्लो हल्लेण को चेअइ अप्पाणु (हेम० ) । तृतीया एक वचन में अप्पें और अप्पेणं रूपं मिलता है- 'अह अप्पणें न भन्ति' (हेम० ) । पंचमी एवं