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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
किन्हें आदि कवण का ही विकसित रूप अधिक प्रचलित है। अपभ्रंश में प्राकृत किं शब्द का भी प्रचलन रहा जैसे-'किं गज्जहिं-खलमेहं' (हेम०)। अपभ्रंश में कवि शब्द भी प्रचलित है-'कवि घर होइ विहाण' (हेम०) तथा कोइ रूप भी पाया जाता है। 'देहु म मग्गहु कोइ' (हेम०)। आधुनिक हिन्दी में कोई अव्यय के रूप में प्रचलित है। इस तरह इन रूपों को हम तीन वर्गों में विभक्त कर सकते हैं।
(क) अनिश्चित सर्वनाम पि, वि, मि, इ, < सं०, अपि, चि < सं०, चित् आदि।
(ख) किं का काई रूप अव्यय के अर्थ में प्रयुक्त होता है।
(ग) कवण (कोण) प्रश्न, वाचक सर्वनाम के रूप में, कवणु, कवण (स्त्री०) आदि।
कवण शब्द का रूप भी अन्य सर्वनाम शब्दों की भाँति होगा। सर्वनाम क प्रा० भा० आ० के विविध कि, की में दीखता है। किन्तु प्रा० भा० आ० का कि, की म० भा० आ० में कभी भी निश्चित रूप से स्त्रीलिंग के लिये ही प्रचलित नहीं था। क शब्द के रूप का विकास इस प्रकार देखा जा सकता है।
कर्ता०, पुं०, ए० व०-पा०, प्रा०, अप०, को, अप०, कु, पा०, प्रा०, अप० के < कः, अप० केहे < * कयसः (= कयस्य) या * कषः । स्त्री० अप० केहि । कर्ता, कर्म, नपुं०, पा० किं, प्रा० किं, अप० किं, कि < किं। डा० तगारे ($127) ने 'को' रूप को मुख्य माना है। कु (क+उ) का प्रयोग 600 ईस्वी से होता आ रहा है। कु का प्रयोग पूर्वी भारत में नहीं होता था। काइं प्रयोग (हेम० 8/4/367) वस्तुतः नपुंसक लिंग के बहुवचन-क + आई है जिसका ए० व० में काई और काइ रूप भी कहीं-कहीं मिलता है। किं या कि रूप पूर्वी अपभ्रंश में अधिक प्रचलित था। कि रूप मैथिली, मगही और बंगला आदि में अधिक प्रचलित है। अई और आई नपुंसक बहवचन में होता है। अतः काइं और काई मूलतः नपुसंक लिंग के रूप हैं। कि (< कि) का प्रयोग पाहुड़ दोहा तथा सावयव धम्म दोहा में पाया जाता है। किं तथा किंपि का प्रयोग दोहा कोश में पाया जाता है।