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रूप विचार
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(5) अधिकरण पुं० नपुं०, ए० व०-पा० इमम्हि, प्रा० इमस्सिं < * इमस्मिन्, प्रा० अस्मिं, प्रा० अस्सिं < अस्मिन्, प्रा० आअम्मि < * अयस्मिन्, प्रा० इअम्मि < * इयस्मिन्, अप० आअहिं < * आयमिं पुं०, नपुं० ब० व०-पा०, प्रा० एषु, पा० इमेसु < * इमेषु अप० इमेहु इमेहिं <* इमेषु । स्त्री० ब० व० इमासु <* इमासु, अप०-इमाहिं < * इमास्यां।
श्री पिशेल ने (प्राकृत भाषाओं का व्याकरण-पृ० 637) में दिया गया है कि किसी इ-वर्ग का अधिकरण कारक का रूप इह है जिसका अर्थ (यहाँ) होता है और =* इत्थ है। अप० में यह पुल्लिंग और स्त्रीलिंग दोनों में प्रचलित है = अस्मिन् और अस्याम्, अप० का इत्थिं रूप जो सब प्राकृत बोलियों में ऍत्थ है = वैदिक इत्था का परिवर्तित रूप है। महा०, अ० मा० तथा जैन महा० रूप ऍण्हिं और इण्णि है जिसका अर्थ 'अभी' है। अपभ्रंश एवहिँ या एम्वहिँ है जिसका अर्थ अभी या इस प्रकार है। “एम्वहिं राह-पओहरहं जं भावई तं होई" (हेमचन्द्र)। परवर्ती अपभ्रंश पर दृष्टिपात करने से पता चलता है कि इदम् शब्द का रूप घिसते घिसते हिन्दी में आकर बिल्कुल नष्ट भ्रष्ट हो गया। केवल (बनारसी) भोजपुरी आदि बोलियों में इ मात्र अविशिष्ट रह गया है जैसे-ई सब सुनत हैं, इनन्हिं पचन तें कहत हैं। परिनिष्ठित अपभ्रंश के समय में ही आय (इदम्) शब्द लुप्त सा हो चला था। आगे चलकर अवहट्ट, अवधी, व्रज और खड़ी बोली में एह की परम्परा चली। कीर्तिलता में ई शब्द मिलता है-ई णिच्चइ नाहर मनमोहइ । अदस् (अस, अम) शब्द का रूप
दूरवर्ती निश्चय बोधक संस्कृत अदस् शब्द का रूप अपभ्रंश ओइ होता है-'तो बड्डा घर ओई (हेम० 8/4/364)। इसका रूप अपभ्रंश में बहुत कम मिलता है। जैसे अपभ्रंश एह, एइ से हिन्दी में यह, ये इत्यादि बना है वैसे ही संभवतः एह के तुक पर ओह एवं ओई से वह, वे इत्यादि बना है। परिनिष्ठित अपभ्रंश के समय में ही संकेत निर्देश के लिये ओई शब्द से ओ मात्र अवशिष्ट रहा जैसे-ओ गोरी