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रूप विचार
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पूर्वोक्त उदाहरणों से प्रतीत होता है कि होन्तउ का प्रयोग समस्त अपभ्रंश साहित्य में होता था। डॉ० तगारे का यह कहना कि यह केवल पश्चिम अपभ्रंश में ही प्रयुक्त होता था-उचित नहीं प्रतीत होता।
आगे चलकर कीर्तिलता में इसका रूपान्तर हुन्ते रूप में प्रयुक्त मिलता है :-दूरु हुन्ते आ आ वड वड राआ (पृ० 46)
अवधी में यह हुन्ते हुन्त होकर अपादान के अतिरिक्त करण और सम्प्रदान में प्रयुक्त हुआ है। अपादान-जल हुँत निकसि मुवै नहि काछू (पद्मा०)
सास ससुर सन मोरि हुँति विनय करव कर जोरि (मानस) करण- उत हुँत देखै पाएउँ दरस गोसाईं केर। (पद्मा०) सम्प्रदान-तुम हुँत मंडप गयउँ परदेसी (मानस)
राजस्थानी42 में भी हूँतउ (हुँतंउ), हूँती और हूँतइ का प्रयोग पाया जाता है।
मरण-हूँतउ राखिउ = मरण से रक्षा हुई (षष्ठि०4) धर्म-हूता न वालइँ = धर्म से न मुड़े (षष्ठि० 3) जे संसार-हूँता बीहता न थी = जो संसार से भीत नहीं है
(षष्ठी० 6) तेस्सि तोरी महोदय का कहना है कि हूँती (हुति) हूँतउ के अधिकरण रूप हूँतइ (< हूँतिइ) का सिमटा हुआ रूप है। यह हूँतउ से अधिक प्रचलित है जैसा कि अपादान परसर्गों के सभी भाव लक्षण सप्तमी (Absolute) रूपों के साथ है क्योंकि ये सीधे (Direct) रूपों से अधिक प्रचलित होते हैं। आधुनिक गुजराती और मारवाड़ी में इसके केवल अधिकरण रूप ही अवशिष्ट रहे। हूँती के उदारहण :कर्मक्षय आत्म-ज्ञान-हुँती-कर्मक्षय आत्मज्ञान से होता है।
(योग 4/113)