________________
रूप विचार
309
ये रूप पिशेल ($424) एवं डॉ० तगारे (8121) के आधार पर दिये गये हैं। इस शब्द का अधिकांश रूप इदं से, तथा एषः-एषा एतत् से सम्बद्ध है। इत्थि का प्रयोग अधिकरण में पाया जाता है। 'त्य' विभक्ति चिह जो मूलत: 'त्र' प्रत्यय (तत्र, यत्र, अत्र) का विकास जान पड़ता है, डॉ० भोला शंकर व्यास के अनुसार सप्तम्यर्थ प्राकृत में ही प्रयुक्त होने लगा है। हेमचन्द्र ने इदं शब्द के साथ में त्थ शब्द का प्रयोग वर्जित माना है।57 परिनिष्ठित प्राकृत में 'त्थ' शब्द का प्रचलन अवश्यमेव रहा होगा। क्योंकि अपभ्रंश में त्र प्रत्यय (> त्थ) वाले प्रयोग पाये जाते हैं :
'जइ सो घडंदि प्रयावदी केत्थुविलेप्पिणु सिक्खु । जेत्थु वि तेत्थु वि एत्थु जगि भण तो तहि सारिक्षु।।
(हेम० 8/4/404) एत्थु का विकास एत्थ (< एतत् + < त्र) के साथ अधिकरण ए० व० चिह 'इ' जोड़ कर मान सकते हैं :- 'इत्थ + इ' (< इदं या एतत् + त्र + इ) इसी से मिलता जुलता रूप पंजाबी में 'इत्थे' चलता है। 'इण्णि' (करण ए० व०) को एण्हिं या इण्हिं से जोड़ सकते हैं।'
(1) एतत् शब्द का प्रथमा एवं द्वितीया ए० व० पुं०, स्त्री० और नं० में क्रम से एहो, एह और एह रूप होता है। पा०, प्रा० एसो < अप० एहो < एषः । प्रा० एस, अप० एह < एष (:)
(2) स्त्री ए० व० पा०, प्रा० एषा, अप० एह < एषा।
कर्ता० कर्म० ए० व० न० पा० एतं < * एतम, अशो० एस, एसे, अप० एह, एहु < एष (6) अप० एहउँ (केवल कर्म में) < * एषकम।
प्राकृत एस का आधार प्रा० भा० आ० एष है। अप० एह (< प्रा० भा० आ० एष) और एह-अ (< एषक) की प्रवृत्ति का परिणाम ह का उच्चारण प्रा० भा० आ० के स्वर में होने लगा। एक वचन में उ और ए को ई अपभ्रंश में हो गया। पुल्लिंग में प्रयुक्त होने वाला ओ नपुंसक लिंग में भी प्रयुक्त हुआ । इससे प्रतीत होता है कि इस समय लिंग का भेद शनैः शनैः मिट रहा था। ए की विशेषता पूर्वीय अपभ्रंश में पायी