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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
जाती है। हेमचन्द्र ने आ का विधान किया है। एहा (8/4/445) और एयं रूप भी कहीं कहीं मिलता है। * एष-क > एह-अ > एहा। एह की व्युत्पत्ति इदृश या काल्पनिक रूप * आइस > अइस > अइस > एस > एह से है। एहो, एह रूप के साथ साथ कहीं कहीं ऍउ और इउ रूप भी मिलता है। पुष्पदन्त की रचनाओं में एहउ = एतद् रूप भी मिलता है। इस प्रकार पुं० प्र० ए० व० में रूप होगा-इह, इह, ऍह, और एस । नं० ए० व० में रूप होगा-इउ, ऍउ, इहु, ऍहु और एहु।
पुं० ब० व० में प्रा० ए (द) ए, अप० एइ < एते । एहउं रूप भी मिलता है जो कि = * एषकम् (हेम० 8/4/362) कर्म पुल्लिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसक लिंग में भी प्रयुक्त होता है।
स्त्री ब० व० में प्रा० ए (द) आ ओ < एताः अप० एईउ, एहाउ। प्रथ०, कर्म, ब० व० नं० में प्रा० ए (द) आ इ (म्) < * एता + इम्, ए (द) ए, अप० एइई, एईई, एहाइं।
करण पुं० ए० व० - प्रा० ए एण (म्) < एतेन, प्रा० एदिणा < * एतिना प्रा० एहेण < अप० एहें < एतेन।
पु० ब० व० प्रा० ए (द) ए हिम <* एताभिम् अप० एयाहिं या एहे हिं सम्बन्ध के बहवचन में भी इसी तरह के रूप होंगे एय-हा, आयहं । स्त्री० में एयाहिं < एताभिम् ।
अपादान ए० व० प्रा० ए (द) आ (द) ओ, ए (द) आ (द) उ <* एतत् + तास, एआ < * एतात् (आत्, तात्, यात् ऋग्वेद), ए (द) आहि < * एताहि, प्रा० एत्तो, एत्तहा (क्रमदीश्वर), एत्तहे, अप० एत्तहे, एत्ताहे किन्तु एत्ता = एत वर्ग से निकला है और ताहे की भाँति स्त्रीलिंग का अधिकरण एक वचन का रूप माना जाना चाहिये। अप० में इस एत्तहे का अर्थ 'यहाँ से होता है और इसका दूसरा अर्थ 'इधर' है (हे० 8/4/436) इसके अनुकरण पर अप० में तेत्तहे रूप भी बना है जिसका अर्थ 'उधर' है।
सम्बन्ध पुं० ए० व०-प्रा० एअस्स < एतस्य अप० एहो, एहु, एअस्स आदि । ब० व० में प्रा० ए (द) आ ण (म्) < * एताणाम, एइणम < * एतीनाम् । एयहि, आयहं ।