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रूप विचार
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मज्झि स्वतः सप्तमी विभक्ति से युक्त है। यह मज्झे, मज्झि < सं० मध्ये का विकसित रूप है जो कि प्रायः षष्ठी विभक्ति के बाद प्रयुक्त होता है। यही मज्झि अवहट्ठ में तथा पुरानी राजस्थानी एवं व्रज, अवधी और खड़ी बोली में माझ, मझारि, माझि, माँ माँह, माहि, मह, में आदि रूप में परिणत हो गया। 'युवराजहि माझ पवित्र' (कीर्ति० पृ० 12), प्राकृत पैंगलम्' में भी इसके विविध रूप मिलते है :- चितमज्झे (2,164) वगमज्झ (2,169) संगाम मज्झे (2,183) प्राकृत पैंगलम् में अधिकरण परसर्ग मह का रूप प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। लोहंगिणिमह (1,88) कोहाणलमह (1,106) आदि ।
ब्लाख ने इसकी व्युत्पत्ति * मध (अवेस्ता मद) से मानी है। वस्तुतः यह संस्कृत मध्ये का ही विकसित रूप है।
पुरानी राजस्थानी में भी इसके विविध रूप मिलते हैं। अणहलपुर मझारि=अनहल पुर में (कान्ह० 67) पेटि मझारि=पेट में (शालि0 33)
यह अपभ्रंश * मज्झारे < (सं० * मध्य कार्ये से निकला है जो कि मध्य के साथ सार्वनामिक संबंध सूचक बनाने वाले कार्य प्रत्यय को जोड़ कर बनाया हुआ विशेषण है। देशी नाममाला 6/121 में हेमचन्द्र ने मज्झ आर को मज्झ (< सं० मध्य) का पर्याय माना है। (तेस्सि तोरि $74/4)।
आवी घरि माझि = घर में गई (पं० 295) तेह माँ नहीं सन्देह-इसमें सन्देह नहीं (एफ० 636,5) अन्द्र वडो सुर-म्हाँ = सुरों में इन्द्र बड़ा है। (एफ० 772,31)
माँ (म्हाँ)-यह तेस्सि तोरि के अनुसार संभवत: * माझाँ < अप० मज्झहुँ से निकला है जो मज्झ का अपादान रूप है और बीच की अवस्थायें माहाँ > म्हाँ है।
___ पुरानी अवधी और व्रज में मझारी, माँह, और मँह रूप पाया जाता है :