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रूप विचार
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संस्कृत भिस् का ऐ: रूप है। प्राकृत में विसर्ग ध्वनि का उच्चारण ह की तरह होने लगा तथा ऐ स्वर ए स्वर में परिणत हो गया। वही रूप विकसित होकर हि एवं एहिं के रूप में परिणत हो गया। अपभ्रंश में अनुस्वार की प्रवृत्ति करण के बहुवचन से लेकर अधिकरण के बहुवचन तक पायी जाती है। प्राकृत में भी यह अनुस्वारात्मक प्रवृत्ति पायी जाती है। इसका विकास क्रम इस प्रकार हो सकता है-सं० पुत्रैः > प्रा० पुत्तेहि > पुत्तेहिं०, अप० पुत्तेहिं > पुत्तहि > पुत्तहि। अधिकरण के बहुवचन में भी पुत्तहिं रूप बनता है। कुछ विद्वानों ने संस्कृत स्मिन् से भी हिं की व्युत्पत्ति मानी है।
(घ) सम्प्रदान० चतुर्थी विभक्ति का अपभ्रंश में सर्वथा अभाव है। प्राकत में भी चतुर्थी विभक्ति नहीं होती। चतुर्थी का बोध सम्बन्ध कारक से होने लगा। संस्कृत में भी कारकों के प्रयोग में अपवाद होता था। सम्प्रदान कारक प्रेरणार्थक भावों में प्रयुक्त होता है। उसका प्रयोग दानादि क्रिया में अधिक होता था। प्राकृत में आकर संस्कृत की वह प्रवृत्ति विनष्ट सी हो गयी। फलतः अपभ्रंश ने भी चतुर्थी का कोई रूप ग्रहण नहीं किया और उसका स्थान षष्ठी ने ले लिया।
(ङ) अपादान० पञ्चमी एक वचन पुत्त+ङसि!” के स्थान पर क्रम से हे तथा हू आदेश होता है-पुत्तहे, पुत्तहू । सं० पुत्तात् होता है। प्राकृत सुन्तो तथा हिन्तो से हे, हू का विकास होगा।
बहुवचन पुत्त + भ्यस! =हुं से पुत्तहुं रूप बनता है। सं० पुत्रेभ्यः, प्राकृत में हेमचन्द्र के अनुसार 8 रूप होता है-पुत्तत्तो, पुत्ताओ, पुत्ताउ, पुत्तेहि, पुत्ताहिंतो, पुत्तासुन्तो, पुत्तेसुंतो। इसी अन्तिम सुन्तो से हुं का विकास अधिक तर्कसंगत प्रतीत होता है।
(च) सम्बन्ध षष्ठी एक वचन में पुत्त+ङस् विभक्ति के स्थान पर सु, हो स्सु आदेश होकर-पुत्तसु, पुत्तहो, पुत्तस्सु रूप बनता है। सं० पुल्लिंग-पुत्रस्य > प्रा० पुत्तस्स > का विकसित रूप अपभ्रंश में उकारात्मक प्रवृत्ति होने के कारण स्सु, सु तथा इसीसे हो रूप भी बनता है।