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रूप विचार
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है-कील < क्रीडा, सियय < सिकता, पडिम < प्रतिमा, पुज्ज < पूजा, मालइ < मालती, सयलिंघि < सौरंध्री, किंकरि < किंकरी, जिंभ < जिह्वा । बहुत बार आकारान्त ह्रस्व इकार भी होता है, णिसि < निशा, कहि < कथा ।
लिंग परिवर्तन
उपरोक्त शब्द रूपों में ध्वनि परिवर्तन के कारण अपभ्रंश में लिंग परिवर्तन पाया जाता है। लिंग की व्यवस्था नहीं पायी जाती। यद्यपि प्राचीन भारतीय आर्य भाषा में कभी कभी लिंग की अव्यवस्था पायी जाती थी। पुरूष के लिये स्त्रीलिंग और स्त्रीलिंग के लिये पुल्लिंग का प्रयोग होता था, स्त्री 'दारा' शब्द का प्रयोग पुल्लिंग में व्यवहृत होता था। चेतन, कलत्र शब्दों का प्रयोग नपुंसक लिंग में होता था। डॉ० तगारे के अनुसार अपभ्रंश में लिंग की अव्यवस्था का कारण पालि, प्राकृत और अशोक के शिलालेख आदि हैं जिनमें लिंग विषयक भ्रम पाये जाते हैं। अपभ्रंश के समय में लिंग विषयक संदेह अधिक हो गया। इस लिंग अव्यवस्था का कारण प्रातिपदिक शब्द रूपों में एकीकरण का साम्य था, अ, इ, उकारान्त प्रातिपदिक रूपों में बहुत कुछ समानता होने के कारण सभी लिंगों में एक ही प्रकार की विभक्तियाँ जुटने लगीं। इस कारण प्रातिपदिक शब्द रूपों से सहसा लिंग भेद का ज्ञान नहीं हो पाता, पुल्लिंग–'करि गण्डाइँ < करिगंडान्, गय-कुम्भई < गज-कुंभान्, स्त्रीलिंग-रेहई < रेखा, नपुं०--कमलई < कमलानि।
__ आ, ई, ऊकारान्त शब्द अपभ्रंश में प्रायः स्त्रीलिंग में प्रयुक्त होते हैं। पी० एल० वैद्य के अनुसार इ, ई, उ तथा ऊकारान्त मति, तरूणी, धेनु और वधू आदि शब्द स्त्रीलिंग के हैं जिसका रूप मुद्धा के समान चलता है। परन्तु इस नियम के अपवाद भी मिलते हैं। देखा जाता है कि इकारान्त, उकारान्त शब्द रूप पुल्लिंग एवं नपुंसक लिंग में भी पाये जाते हैं। लिंग सन्देह का मूल कारण है कि हम अपभ्रंश में नियमानुसार सारी पद्धति देखना चाहते हैं। वस्तुतः अप्रभश में भी लिंग