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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
के कारण प्रथमा एक वचन और द्विवचन में कोई भेद नहीं रहा । फलतः द्विवचन को अनावश्यक समझ कर उसे समाप्त कर दिया गया। आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में नपुंसक लिंग के अभाव का कारण यही ध्वनि परिवर्तन ही है । अपभ्रंश के सभी शब्द इसीलिये स्वरान्त होते हैं तथा उनके अन्त में अ, आ, इ, ई, उ, ऊ स्वर ध्वनियों में से कोई एक ध्वनि पाई जाती है । अपभ्रंश में तीन लिंग होते हैं अ, इ, उ स्वर ध्वनियों अन्तवाले शब्द तीनों लिंगों में होते हैं । आकारान्त, I ईकारान्त, और ऊकारान्त वाले शब्द स्त्रीलिंग में होते हैं।
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मध्य भारतीय आर्यभाषा में व्यंजनान्त शब्दों का अभाव हो गया था । किन्तु पिशेल महोदय का कथन है कि कहीं-कहीं व्यंजनान्त शब्द भी दीख पड़ता है। अपभ्रंश में त्, न्, स् व्यंजनान्त शब्दों का अवशिष्ट रूप दृष्टिगोचर होता है- बंभाण < ब्रह्माण < रायाणो < राजानः, वइणो < व्रतिनः, अर्धमागधी का अवशिष्ट प्राकृत में और उससे अपभ्रंश में आया। व्यंजनान्त शब्द दो प्रकार से उपलब्ध होते हैं - ( 1 ) कभी अन्त्य व्यंजन को लोप कर दिया जाता है, मण < मानस, जग < जगत्, अप्प < आत्मन्, मणहारि < मनोहारिन् (2) कभी कभी व्यंजनान्त शब्द को अकारान्त भी कर दिया जाता है- जुवाण < युवन्, आउस < आयुष् अप्पण < आत्मन् । स्त्रीलिंग में आकारान्त को इकार भी हो जाता है। (3) ऋकारान्त शब्दों के ऋ का अर् वाला रूप भी पाया जाता है पियर < पितृ, भायर < भ्रातृ, भत्तार < भर्तृ, सस < स्वसृ, माय, माइ < मातृ, भाइ < भ्रातृ (4) अत्-अन्ती - वर्तमान कृदन्त का वत् अन्ती नाम वाले शब्द के अन्त को वन्त भी हो जाता है मत का मन्त और वन्त दोनों होता है। कितनी बार प्राकृत के अनुसरण पर त् का रूप भी पाया जाता है - हसंतो, पढतो, पवसन्त आदि । स्त्रीलिंग में इसके अन्ती रूप भी पाये जाते है :- संती (जैन महा०), अपावन्ती < अप्राप्नुवती हुवंती, पेक्खंती, गच्छंती आदि । वंत < सं० वत (विशेषण बोधक) पुणवंत < पुण्यवत्, गुणवंत < गुणवत् । वंति < सं० वत् + ई (स्त्रीलिंग), गुणवंति < गुणवती । ( 5 ) कभी-कभी स्त्रीलिंग वाले आकारान्त तथा ईकारान्त शब्द के अन्त्य स्वर ह्रस्व भी हो जाता
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