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ध्वनि-विचार
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ज >. ञ-(सि० हे 8/4/392) वुइ < व्रजति। हेमचन्द्र ने इसका उद्धरण जरूर दिया है किन्तु सामान्यतया यह अपभ्रंश साहित्य में प्रचलित नहीं है।
ट > ड > ल-कडियठि < कटितटे।
ड > ल-कील < क्रीडा, सोलह < सोळस < षोडश, तलाउ < तडाग, नियल < निगड, पीलिय < पीडित ।
त > ड > ल-अलसी < अतसी, विज्जुलिआ < विद्युतिका (विजुली), फुल्लइ < फुडइ < फुट्टइ < स्फुटति, सालवाहन < सातवाहन, दोहल < दोहद।
त > ड > र-सत्तरी < सप्तति (हे० 8/1/210) थ > ठ > ढ-पढम < प्रथम (हे0 8/1/125)
द > ड > र-एयारह < एकादश (एगारह), बारह < द्वादश, करली < कदली, गग्गर < गद्गद, गग्गिर प्रयोग भी मिलता है।
द > ड > ल-मलिउ < मृदितं, मलइ < मृद्गति, पलित्त < प्रदीप्त, पलिप्पंत < प्रदीप्यमाण, कालंबिणि < कादम्बिनी।
प > व > म-सुमिण < सुविण < स्वप्न, पामइ < प्राप्नोति, मि < वि < अपि, दुमय < द्रुपद।
ब > म-कमंध < कबंध, तमालु < तंबोलु < ताम्बूल ।
म > व, व-दो स्वर के बीच में म को होता है (सि० हे० 8/4/ 397)।
म का '' विकास अपभ्रंश की खास विशेषता है। यह राजस्थानी, ब्रज आदि आधुनिक भाषाओं में भी पाया जाता है।
जिंव < जिवँ < जिम, सवारिउ < समारचित, केम्व < केम < किम।
म > व-रवण्ण < रमण्य, दवणा < दमनका, सवण < श्रमण < वम्मह < मन्मथ, वम्म < मर्मन। . म को व होकर उ होने की भी प्रवृत्ति पायी जाती है। अवर उहउ < अपर मुखिन्यः, भउहउ < भ्रमुका।