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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
आदि में संयुक्त व्यंजन नहीं होता फिर भी इस नियम के अपवाद भी कुछ मिलते हैं । ह, म्ह, ल्ह, आदि के उद्धरण पाये जाते हैं - हाहु < स्नात, ण्हाण - स्नान, ल्हसइ < हसति, ल्हसिउ, म्हो < स्मः, म्हि < अस्मि आदि। आगे चलकर यह प्रवृत्ति समाप्त हो गयी । नव्य भारतीय आर्य भाषाओं में शब्द के आदि में तद्भव शब्दों में संयुक्त व्यंजन की प्रवृत्ति समाप्त हो गयी ।
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प्राकृत तथा अपभ्रंश में विजातीय संयुक्त व्यंजन वाले रूपों का सर्वथा अभाव पाया जाता है । संस्कृत के पद मध्य में तीन, चार, पांच संयुक्त व्यंजन ध्वनि वाले रूप पाये जाते हैं- उज्ज्वल, अर्ध्य, तार्क्ष्य कार्त्स्य आदि। अपभ्रंश में केवल दो संयुक्त व्यंजन ध्वनियाँ पाई जाती हैं। आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में भी यही प्रवृत्ति पायी जाती है।
इस प्रकार मध्य भारतीय आर्य भाषा में संयुक्त व्यंजनों का उच्चारण ध्वनि विकास का एक महत्वपूर्ण लक्षण है।
डॉ० सुनीति कुमार चाटुर्ज्या ने बताया है कि छांदस संस्कृत की संयुक्त स्पर्श व्यंजन ध्वनियों में प्रथम स्पर्श ध्वनि का पूर्ण स्फोट (Explosion) पाया जाता है । भक्त, रक्त जैसे संयुक्त व्यंजनों के उच्चारण में उनके अंगभूत दोनों व्यंजनों का स्फोट होता था - क्त में क् और त् का स्फोट होता था। उस समय उच्चारण करते समय लोगों के मन में शब्दों के प्रकृति प्रत्यय विभाग का स्पष्ट ज्ञान था। उस काल में उच्चारण प्रक्रिया की यह विशिष्टता थी । रक्त, भक्त में ज्+त और भज् + त ऐसा ख्याल स्पष्ट था । किन्तु बाद में चलकर धातु विषयक बोध या धात्वाश्रयी धारणा का लोप हो गया। 29 फलतः दोनों व्यंजनों का स्फोट न होकर केवल अन्तिम व्यंजन का स्फोट होने लगा, प्रथम स्पर्श व्यंजन का केवल 'अभिनिधान' या 'संधारण' (Implosion) किया जाने लगा । इस प्रक्रिया के स्वरों के ह्रस्व दीर्घत्व, स्वराघात (Stressaccent) सब में परिवर्तन हो गया। प्राचीन आर्य भाषा की नाद प्रधान उच्चारण पद्धति बदल कर मध्य भारतीय आर्य भाषा के काल में बल प्रधान हो गयी।