________________
ध्वनि-विचार
233
हेमचन्द्र का कहना है कि अपभ्रंश में स्वर के नियम व्यस्थित नहीं हैं । यथेच्छ प्रयोग के अनुसार स्वर की प्रवृत्ति पहचानी जाती है। ई के स्थान पर ये भी हो सकता है तथा इ भी जैसे वेण, वीण आदि ।
अन्त्य स्वर
प्रायः देखने को मिलता है कि प्राचीन भारतीय आर्यभाषा के समय में वैदिक कालीन शब्द के अन्तिम स्वर का उच्चारण लौकिक संस्कृत में क्षीण हो चला था। जैसे वैदिक 'यत्रा' और 'तत्रा' का लौकिक संस्कृत में 'यत्र' एवं 'तत्र' प्रयोग होने लगा था। पिशेल का कथन है कि मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाओं का व्यंजनान्त स्वर समाप्त हो चला था। अशोककालीन ताम्रपत्रों से पता चलता है कि पूर्व प्रदेश में प्रायः आकारान्त शब्द का प्रयोग हस्व अकार में होता था।
इस प्रकार हम देखते हैं कि अन्त्य स्वर के इस्वीकरण एवं लोप की प्रवृत्ति पूर्वकालीन मध्य भारतीय आर्यभाषा से लेकर अपभ्रंश तक में यह प्रवृत्ति पाई जाती है और आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के विकास में इस प्रवृत्ति ने काफी योगदान दिया है। बिहारी, कश्मीरी, सिन्धी एवं कोंकणी के अतिरिक्त अन्य सभी आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में यह प्रवृत्ति पाई जाती है।
(1) नाम के व्यंजनान्त अ-अ + अम् घिस कर समाप्त हो जाता है या ह्रस्व होकर पूर्ववर्ती स्वर से मिलकर अपना अस्तित्व समाप्त कर देता है। खेत्ती < क्षेत्रित, उज्झा, (हि० ओझा) < उपाध्याय आदि अन्त्य स्वर का लोप हो गया है।
___ (2) अन्त्य स्वर के हस्वीकरण की प्रवृत्ति । प्राचीन भारतीय आर्यभाषा का आ, आम, आह एवं आनी का अ हो जाता है या लोप हो जाता है :-पिय < प्रिया, पराइय < परकीया, संझा < संध्या; पूर्वी अपभ्रंश अवेज्ज < अविद्या ।
(3) अन्तिम वर्ण के साथ अन्त्य 'आ' का भी लोप हो जाता है = आणी < आणीआ < आनीता; पूर्वी अपभ्रंश = मट्टी < मट्टीआ < मृत्तिका।