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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
व्याख्या में स्वतः प्रायः शब्द का प्रयोग किया है। संभवतः इसी आधार पर पिशेल महोदय ने विकल्प करके सानुनासिक हस्व उच्चारण माना हो। 8/4/411 में वर्णित सानुनासिक ह्रस्व उच्चारण के आधार पर एल० पी० तोस्सि तोरी महोदय हेमचन्द्र के अपभ्रंश व्याकरण में अन्यत्र उद्धृत 'अं 'ई' और 'ए' पदान्तों की भी यही स्थिति मानते हैं। इसीलिये उन्होंने आगे कहा है कि ऐसा लगता है कि पदान्त अनुस्वार अपभ्रंश से ही अनुनासिक में बदल गया था और यदि हेमचन्द्र द्वारा उद्धृत छन्दों से निर्णय करें, जिनमें प्रायः सभी पदान्त अनुस्वार अनुनासिक तथा केवल थोड़े से अनुस्वार अनुनासिक में बदल गया था तो हमें पता चलता है कि इनमें से प्रथम प्रवृत्ति नियम की सूचना देती है और द्वितीय प्रवृत्ति अपवाद अर्थात् बोलचाल की अपभ्रंश में, पदान्त अनुस्वार अनुनासिक हो गया था और उसका अवशेष केवल कविता में ही रह गया था जहाँ दीर्घ अक्षर के लिये उसका उपयोग होता आ रहा था वहाँ अपभ्रंश में पदान्त अनुस्वार या अनुनासिक की प्रायः सुरक्षा की गयी है 8/4/355-तहाँ < तम्हा < तस्मात्, जहाँ < जम्हाँ < यस्मात्, कहाँ < कम्हाँ < कस्मात् ।
9. जिस प्रकार आजकल हिन्दी में इस्व ऍ तथा हस्व के होता है उसी प्रकार अपभ्रंश के समय भी विभक्त्यन्त पदों में 'ए' तथा 'ओ' के होने पर उनका उच्चारण लघुता के साथ यानी शीघ्रता (Short) से किया जाता था 8/4/410 सुघे, 8/4/380 दुल्लहहो आदि।
इसके अतिरिक्त अपभ्रंश के स्वर विकार में ध्वनि नियम की प्रायः सभी प्रवृत्तियाँ परिलक्षित होती है।
स्वर लोप
(क) आदि स्वर लोप (Aphesis)
(1) स्वर भार के विना आदि स्वर सामान्यतः लुप्त हो जाता है-हउं < * अहकम, हिट्ठा < अधस्तात, वलग्ग < अवलग्न, रण < अरण्ण < अरण्य, रविंद < अरविन्द, वइसइ < उपविशति, वारि < उपरि।