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ध्वनि- विचार
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(Disaspiration) का त्याग भी कभी-कभी हो जाता है, विच्छोअ < विच्छोह - विक्षोभ, उच्चिट्ठ < उच्छिष्ठ ।
शौरसेनी, मागधी और कुछ दूसरी बोलियों में थ को ध हो जाता है।
शौर०- अदिधि < अतिथि, कधेद < कथितं, तधा < तथा, अध < अथ, जधा < यथा ।
मा०—यधा < यथा, तधा < तथा । पालि में अथ, यथा, तथा सुरक्षित है। निम्नलिखित रूप शौरसेनी और महाराष्ट्री के बीच की खास विशेषताओं को बताते हैं :
शौर०
महाराष्ट्री
अध
अह
मणोरध
मणोरह
कधम
कहम
णाध
णाह
शब्दों को कोमल करने की प्रवृत्ति (Softening)
यद्यपि अपभ्रंश में मध्य व्यंजनों के लोप करने की प्रवृत्ति अधिक पायी जाती है, फिर भी अपभ्रंश की अपनी खास विशेषता यह है कि यदि स्वर मध्यग असंयुक्त क, ख, त, थ, प एवं फ हो तो क्रम से उन्हें ग, घ, द, ध, व एवं भ हो जाता है। हे० 8 /4/396, विच्छोहगरु < विक्षोभकरः, सुधि - सुखेन, सबधु < शपथं, कधि दु < कथितं, सभलउं < सफलं । परन्तु यह कोई आवश्यक नहीं है कि अपभ्रंश में यह नियम सर्वत्र पाया ही जाय ! अपवाद भी मिलता है। 1 अकिया—अकृत में स्वर मध्यग असंयुक्त क का ग नहीं हुआ, पफुल्लिअउ < प्रफुल्लितकः में फ को भ नहीं हुआ ।
<
संस्कृत
अथ
मनोरथ
कथम
नाथ
स्वरों के बीच में ट को ड और ठ को ढ़ भी होता है । कुडिल < कुटिल, कुडुम्ब < कुटुम्ब, बड < वट । कुछ बोलियों में ड को ल भी हो जाता है-म० कखोल < करकोट, माग ० सअल < सकट आदि ।