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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
सामान्यतः शब्द के आदि व्यंजन में विकार नहीं होता । किन्तु कुछ ऐसे अपवाद भी मिलते हैं जहाँ कि शब्द के आदि के व्यंजन में विकार होता है जैसे :
दिद्दि < धृति – यहाँ आदि व्यंजन ध के स्थान पर द हुआ है। धुअ या धूय < दुहिता - आदि व्यंजन ध के स्थान पर दा यादि < जाति-जहाँ आदि ज की जगह य हुआ है । स्वरीभवन (Vocalization)
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स्वरीभवन (Vocalization) मध्य भारतीय आर्य भाषा की प्रायः यह प्रवृत्ति रही है कि स्पर्श अल्पप्राण असंयुक्त स्वर मध्यग व्यंजन क ग, च, ज, त, द, प, य, व का प्रायः लोप" हो जाता है। उदाहरणार्थ:- परकीया पराइय, योगिन> जोइ, गोरोचन > गोरोअण, अगलित > अगलिय, योजन > जोअण, > पाद > पाअ, सुजन > सुअणु, विप्रिय-कारकः > विप्पिय आरउ, रूप > रूअ, विवुध > विउह, दिवस > दियह ।
व्यंजनों के लुप्त होने के बाद अवशिष्ट 'अ' का उच्चारण य की तरह होने लगा। यह 'य' (लघु प्रयत्न तर यकार ) संस्कृत या मागधी य की अपेक्षा अधिक कमजोर था और लेखन में इसका स्पष्टीकरण नहीं होता था । केवल जैन महाराष्ट्री में इसका प्रयोग होता था । हियय - हृदय |
प्राकृत काल में य, र, व, श, ष, एवं स व्यंजन के लुप्त होने पर उसके पूर्ववर्ती स्वर का दीर्घ 20 हो जाता था । यह प्रवृत्ति अपभ्रंश में भी पाई जाती है - नीसासु < निःश्वासम्, वीसमइ < विश्राम्यति, रूसेसु । महाप्राण करण (Aspiration)
महाप्राण करण (Aspiration) प्राकृत एवं अपभ्रंश में स्वर मध्यग स्पर्श महाप्राण ख, घ, थ, ध, फ, और भ का ह" हो जाता है। डॉ० चाटुर्ज्या के शब्दों में केवल ह अवशिष्ट रह जाता है-सहि < सखि, दीह < दीर्घ, कहा < कथा, अहर < अधर, मुत्ताहल < मुक्ताफल, गहीर < गभीर, सोह< शोभा, णह < नभसयानाव। इसमें महाप्राण