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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
परे आ रहने पर भी पूर्वरूप हो जाता था, जैसे उज्झा < उपाध्याय
इत्यादि ।
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4. प्राचीन भारतीय आर्य भाषा में ए ऐ ओ, औ के बाद 'अ' स्वर के रहने पर अय, आय, अव, आव'' आदेश होता था । अपभ्रंश में उसका या तो आदि स्वर 'आ' ग्रहण किया गया या परवर्ती य, व का विकसित वर्ण लिया गया । पलाण < पलायनम् प्लै + अन इत्यादि ।
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5. अपभ्रंश के शब्दों में मध्यवर्ती अ या अन्त के अ के रहने • पर 'य' श्रुति होती थी । 'उ' और 'ओ' स्वर के रहने पर 'व' श्रुति होती थी । उदाहरण - सहयार < सहकार, मयगलहं मदगलानां संपडिय < संपतित, अचिन्तिय < अचिन्तित, गय < गत आदि ।
सि० हे० 8/1/180- अवर्णो य श्रुतिः के ऊपर टीका करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि व्यंजन लोप होने के बाद 'अ' और 'आ' में 'य' श्रुति होती थी । अवर्ण के बाद में ही य श्रुति होती थी । किन्तु क्वचिद् भवति कहकर हेमचन्द्र ने यह भी निर्देश कर दिया है कि अवर्ण से अन्यत्र भी 'य' श्रुति पायी जाती है। जैसे- पियइ < पिवति । मार्कण्डेय ने प्राकृत सर्वस्व में अनादौ अदितौ वर्णो पठितव्यौ यकारवदिति पाठशिक्षा कहकर हेमचन्द्र के 'य' श्रुति के नियम को और भी अधिक उदार बना दिया ।
अपभ्रंश में 'व' श्रुति भी देखी जाती है। सामान्यतया उ, ओ के बाद अ और आ के आने पर व श्रुति देखी जाती है । स्वर भाग (Umlaut) के सिद्धान्त व श्रुति के आगमन का कारण हो तो इसमें कोई शंका नहीं होती। खास बात यह है कि य की व श्रुति का मेल नहीं खाता । यह प्रायः लेखक के छन्द पर ही निर्भर करता है-लायइ, लावइ <* लाति, रुवंति < रुदन्ति, सुहव - सुभग, लोयणु, लोवणु < लोचन, सभूव < सभूत, सभुवंगमिय <सभुजंगा, मल्लिव < मल्लिका (भविसत्त कहा G.O.S. x. x. Intro P. 72) ; ( Les chauts-Mystique de kanha et de Saraho (Ed. Shahidulla, Intro. Chapter III).
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