________________
234
हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
(4) प्राचीन भारतीय आर्य भाषा का ई, इन, इणी, अपभ्रंश में 'इ' या 'अ' हो जाता है। परन्तु यह कोई आवश्यक नहीं है कि साधारण प्राकृत की भाँति, सर्वत्र अपभ्रंश में भी इ और ई का इ हो ही जाय । वस्तुतः अपभ्रंश की शब्द रूपावली के द्वितीया एक वचन में इम का अपभ्रंश इ होता ही नहीं है। फिर भी यह कोई सार्वत्रिक नियम नहीं है। कहीं-कहीं अपवाद भी मिलता है। एक्कइ < एकाकिनी, पहुअ < प्रभृति, इत्यादि।
(5) प्राचीन ऊ, ऊम का अपभ्रंश में 'उ' एवं 'अ' हो जाता है = धण < धनुष, विज्ज (प्पह) < विद्युत (प्रभा) आदि। इस प्रकार के उदाहरण बहुत कम मिलते हैं।
(6) प्राचीन संस्कृत ए का अपभ्रंश में इ हो जाता है = अम्हि < * अस्मे, तुम्हि < * तुष्मे इत्यादि ।
___(7) ऐ के स्थान पर अपभ्रंश में ऍ, ए और अइ तथा औ के स्थान पर ओ, ओ और अउ भी हो जाता है :
ऐ = ऍ अवरेक < अपरैक ऐ = ए देव < दैव ऐ = अइ दइअ < दैव (दइवु घडावइ-8/4/340) औ = ओ गोरी < गौरी (ओ गोरी मुह निज्जिअउ) औ = ओं जो व्वण < यौवन (जो व्वण कस्सु मरटु)
औ = अउ पउर < पौर, गउरी < गोरी (8) अपभ्रंश में पद के अन्त में स्थित उं, हुं, हिं और हं का उच्चारण लघु-हस्व (अतिशीघ्र) उच्चारण होता है :
(क) अन्नु जु तुच्छउं ते धनहे। (ख) दइवु घडावइ वणि तरहुं । (ग) तणहुँ तइज्जि भंगि नवि। (घ) दिन्तेहि सुहय जणस्सु।