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कुन्त।
उ = इ- पुरिस < पुरुष
उ
=
ऊ ए- नेउर < नूपुर
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ओं-मोग्गर < मुद्गर, पत्थय < पुस्तक, कत
हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
ऊ = ओ-मोल्ल < मूल्य
ओ-थोर < स्थूल, तांबोल < ताम्बूल ।
इ, ई, ए-लिह, लीह, लेह, < लेखा ।
ऊ =
ए
(10) अपभ्रंश में स्वादि विभक्तियों के आने पर कभी तो प्रातिपदिक के अन्त्य स्वर का दीर्घ और कभी ह्रस्व हो जाता है :
ढोला सामला < विट श्यामलः ल को दीर्घ हुआ है। धण < धन्या दीर्घ को ह्रस्व ।
सुवण्णरेह - सुवर्ण रेखा - दीर्घ को ह्रस्व ।
<
विट्टीए < पुत्रि - स्त्रीलिंग में ह्रस्व का दीर्घ हुआ है । पइट्टि < प्रविष्टा स्त्रीलिङ्ग में दीर्घ का ह्रस्व । निसिया खग्ग < निशिता खड्गा दीर्घ का ह्रस्व ।
द्योतक हैं । अ का
(11) इसी प्रकार परि < परम, सई - स्वयम्, अवसि< अवश्यम्, इत्यादि का उदाहरण भी इसी प्रवृत्ति के उ भी होता है हे० 8 / 4/419 सहु < सह, * एत्थु < इत्थ-अत्र, केत्थु < कुत्र, अज्जु < अद्य इत्यादि । पिशेल का (प्राकृत व्याकरण पृ० 80 ) कहना है अपभ्रंश के समय में ही ए का परिवर्तन इ में हो गया था - अम्हि, < अम्हे - अस्मै, हेम० 8 / 4/395 जिवँ < जेव -< तिवँ < तेवँ आदि। एल० पी० तेस्सितोरी का कहना है यही प्रवृत्ति पुरानी राजस्थानी में भी रही। उनका यह भी विचार है कि पुरानी राजस्थानी में जो ए बदल कर इ हुआ है वह अपभ्रंश की ही प्रवृत्ति है। हे० 8/4/329 वीण < वेण लिह * लीह < लेह < लेखा, जीह < जेह, तीह < तेह।
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