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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
अपभ्रंश की लेखन शैली संस्कृत एवं प्राकृत की भाँति रही । अतः ह्रस्व ऍ एवं ह्रस्व ओ के लिए कोई पृथक् चिह्न नहीं रहा । उच्चारण में ह्रस्व ऍ तथा ह्रस्व ओं का विधान हेमेचन्द्र ने 8 /4/41 में किया है। संवृत अ तथा विवृत अ के लिये भी कोई पृथक् चिह्न नहीं था । पाणिनि ने 8/4 / 62 अष्टाध्यायी में एवं पतञ्जलि ने महाभाष्य में इसका उच्चारणगत भेद किया है । अतः डा० तगारे का कथन है कि आधुनिक भारतीय आर्यभाषा - अवधी एवं बंगला आदि की भाँति उस समय भी 'अ' के उच्चारण में भेद अवश्य रहा होगा। इसी तरह उस समय अपभ्रंश के कुछ लेखकों ने लुप्त मध्यग व्यंजन के स्थान पर अ रहने दिया, कुछ ने 'य' श्रुति का समावेश कर दिया और कुछ ने पूर्व स्वर अथवा व्यंजन स्वर के साथ इसकी सन्धि कर दी है। इन्हीं सभी कारणों से अपभ्रंश ध्वनियों का विभाजन कर पाना कठिन सा प्रतीत होता है । व्यञ्जन ध्वनियों के बारे में लिखते हुए हेमचन्द्र ने कहा है कि प्राकृत में ङ, ञ, ण तथा न का व्यवहार नहीं होता (ङ ञ ण नो व्यञ्जने 8/1/25) उनके स्थान पर अनुस्वार होता है । षड्भाषा चन्द्रिकाकार का कहना है कि प्राकृत में 40 अक्षर होते हैं। 10 स्वर होते हैं। ऋ, लृ, ऐ तथा औ का व्यवहार नहीं होता । व्यंजनों में असंयुक्त ङ तथा ञ का प्रयोग नहीं होता । श, ष के स्थान पर स प्रयुक्त होता है ।
प्राकृतानान्तु सिद्धिः स्यात्तैश्चत्वारिंशदक्षरैः ।
ऋ लृ वर्णौविनैकारौकाराभ्यां दश स्वराः । शषावसंयुक्त ङ ञौ विनैवान्ये हलो मताः । । चण्ड ने भी प्राकृत लक्षणम् में यही बात कही है :ऐ औ स्वरौ ऋ, ऋ, लृ, लृ, चतुः स्वराः । अः ङ ञ न श षाः सन्ति प्राकृते नैव कर्हिचित् । प्रायः ये सारे नियम अपभ्रंश में भी पाये जाते हैं ।
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