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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
था सामान्य जनता के द्वारा अशुद्ध उच्चारण और प्राकृतिक उच्चारण की अयोग्यता । भर्तृहरि के अनुसार अपभ्रंश अपने आप महत्वपूर्ण नहीं है किन्तु उनका अभिव्यक्तिकरण और स्पष्टता शुद्ध शब्द की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण है। उनका कहना है कि संस्कृत वैयाकरणों के अनुसार अपभ्रंश कोई स्वतन्त्र भाषा नहीं है। अपभ्रंश की शुद्धता और अशुद्धता के विषय में भी हम कुछ नहीं कह सकते।' वही शब्द दूसरे अर्थ में शुद्ध हो सकता है और वही अपभ्रंश या अपशब्द के विषय में अशुद्ध हो सकता है। इस प्रकार शब्द की शुद्धता और अशुद्धता की विचित्र स्थिति होती है ।' भर्तृहरि ने यह देखा था कि ब्राह्मणेतर लोगों में केवल अपभ्रंश की ही प्रवृत्ति है, इस उक्ति पर समीक्षा करते हुए गंगेश ने कहा है कि - अपभ्रंश के शब्दों में उसी प्रकार की अर्थवत्ता शक्ति है जिस प्रकार कि संस्कृत के शब्दों में शक्ति और नियम है। उनका कहना है कि संस्कृत को इसलिये महत्व देना चाहिये कि उसकी एकरूपता समस्त देश में पाई जाती है और वहीं पर अपभ्रंश विभिन्न प्रान्तों में विभिन्न रूपों में ग्रहण की गई है।
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इस प्रकार पतञ्जलि के पहले से ही दो शब्द प्रचलित थे ( 1 ) - अपभ्रंश और (2) अपशब्द । पतञ्जलि के पूर्ववर्ती व्याडि ने भी अपभ्रंश शब्द का प्रयोग किया है - शब्द प्रकृतिरपभ्रंशः इति संग्रहकार, ( वा० प० स्वोपज्ञ टीका काण्ड ) । महाभाष्य में पतञ्जलि ने किसी प्राचीन लुप्त ब्राह्मण का वचन उद्धृत किया है- मलेच्छ वचन अपशब्द है- मलेच्छो ह वा एष यदपशब्दाः । भरत के नाट्यशास्त्र (17/146) में भी अपशब्द का प्रयोग हुआ है-नापशब्दं पठेत् तज्ज्ञः | किन्तु भरत से पूर्ववर्ती ताड्य ब्राह्मण ग्रन्थ (14/4/3) में भी अपभ्रंश का ही उल्लेख पाया जाता है - अपभ्रंश इव वा एष यज्ज्यायसः स्तोमात् कनीयांसस्तोममुपयन्ति । महाभाष्य के प्रसिद्ध टीकाकार कैयट और नागेश ने भी संस्कृत से इतर शब्दों के लिये अपभ्रंश शब्द का प्रयोग किया है।