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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
सहमत नहीं हैं। लास्सन और ब्लॉख के विचारों का खण्डन करते हुए पिशेल महोदय (84)' ने लिखा है कि वररुचि के ऐसा लिखने का कारण यह है कि वह अन्य वैयाकरणों के साथ साथ यह मत रखता है कि अपभ्रंश भाषा प्राकृत नहीं है, जैसा कि रुद्रट के काव्यालंकार (2-11) पर टीका करते हुए नमिसाधु ने स्पष्ट लिखा है कि कुछ लोग तीन भाषायें मानते थे-प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंशयदुक्तं कैश्चिद् यथा। प्राकृतम् संस्कृतम् चैतद् अपभ्रंश इति त्रिधा।।
प्राकृत वैयाकरण वररूचि के व्याकरण पर विचार न करते हुए इतना ही हम कह सकते हैं कि सामान्यतया अपभ्रंश साहित्य की प्राप्ति हमें छठी शताब्दी से होती है। प्राकृत वैयाकरण वररुचि वार्तिककार वररुचि से भिन्न हैं। विद्वानों ने वररुचि का समय तीसरी शताब्दी के लगभग रखा है। अतः यदि उसने अपभ्रंश का वर्णन नहीं किया तो कोई अनुचित नहीं था। चण्ड
___ संभवतः जैन चण्ड ही ऐसा पहला प्राकृत वैयाकरण है जिसने अपने व्याकरण प्राकृत लक्षणम् में अपभ्रंश का व्यवहार किया है। यद्यपि उसने 1-5 सूत्रों में वैकल्पिक रूपों को गिनाया है जो कि अपभ्रंश की खास विशेषता है। एक जगह और दूसरे तथा 19वें सूत्र में धातु से जुड़े हुए प्रत्यय का संकेत किया है-न लोपोऽपभ्रंशेऽधोरेफस्य, सागमस्याप्यामोणों हो वा तथा तु त्ता च्चा ? तं तूण ओप्पिपूर्वकालार्थे ये तीनों सूत्र हानले के सम्पादन में हैं । यद्यपि हार्नले ने बहुत से सूत्रों को परिशिष्टांक में रखा है, फिर भी उसमें तीसरा एवं दूसरा सूत्र मान्य हो सकता है किन्तु पिशेल महोदय को इन सभी पर सन्देह है।
श्री दलाल' एवं गुणे, चण्ड के उन सूत्रों को प्रामाणिक मानते हैं। मानने का कारण यह है कि -
(1) चण्ड ने विभक्ति विधान में साधारण नियमों को संस्कृत की भाँति लागू किया है, उदाहरणों के साथ ही साथ उन्होंने विभक्ति