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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
जणि जाणु मणु इवार्थे-, मिव, पिव, विव, व्वव विअइवार्थे वा भवन्ति, 10. दाणिं एण्हिं एत्तहे एवहिं इदानीमः, 11. यथा तथा अनयोः स्थाने जिमतिमौ आदिदोहा- कालुलहेविणु जोइया जिम जिम मोह गलेइ।
तिम तिम देसणु लहइ जो णिय में अप्पु मुणेइ।। पर्वोक्त उद्धरणों में 1 से लेकर 6 तक का कथन विना उदाहरण का है और इस पर आपत्ति की जा सकती है। क्योंकि चण्ड ने सदा अपनी बातों के लिये उदाहरण दिया है। यही बात 9 और 10वें के लिये भी कही जा सकती है। नम्बर 7,8, और 11 वाँ बिल्कुल चण्ड की प्रकृति के अनुकूल है। इन सबों में अपभ्रंश की क्रिया की विचित्रता वाला रूप 'दडवड' शब्द अर्थ के साथ है। हेमचन्द्र ने अपने प्राकृत व्याकरण (4/422 सूत्र) में दडवड 'शब्द' का अस्वाभाविक अर्थ अवस्कन्द लिया है। नं० 8 में दडवड शब्द को देशी माना गया है जो कि अपभ्रंश में असामान्य नहीं है। किन्तु सबसे अधिक महत्वपूर्ण अपभ्रंश नं० 11 है। उसमें अपभ्रंश जिम और तिम शब्द है जो कि यथा और तथा के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं, दोहा में इसका विस्तार है।
उपर्युक्त जितने भी उदाहरण दिये गये हैं वे सभी कुछ हेरफेर के साथ हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों में पाये जाते हैं। इस रूप में देखने पर हेमचन्द्र सदा संग्रह कर्ता ही माने जायेंगे। हेमचन्द्र बहुत बड़े संग्रह कर्ता थे इस बात की पुष्टि उनके दूसरे साहित्य से भी होती है।
अतः यह निस्सन्देह सिद्ध हो जाता है कि चण्ड, हेमचन्द्र के पूर्ववर्ती थे। किन्तु हार्नले का यह कथन कि चण्ड का व्याकरण पुरानी प्राकृत भाषा का प्रतिनिधित्व करता है कभी भी स्वीकार नहीं किया जा सकता। उनका दूसरा दावा कि चण्ड, वररुचि से भी पहले हुआ था
और उसने अपना व्याकरण तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से कुछ बाद लिखा था-यह कथन भी प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। वस्तुतः चण्ड उस समय हुआ था जब अपभ्रंश आभीरों की एक प्रमुख बोली हो चुकी थी और साहित्यिक भाषा बन चुकी थी। अतः उसका समय छठी शताब्दी के बाद ही होना चाहिये पहिले नहीं।