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व्याकरण प्रस्तुत करने की विधि
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प्रयुक्त होता है, ए० व० के लिए आदु भी प्रयुक्त होता है। इस प्रकार रुच्छहे, रुच्छहुं, रुच्छादु < वृक्ष- | षष्ठी ए० व०-ह, हे, हो,-सु इसके अतिरिक्त स्स-भी होता है। इस प्रकार रुच्छह, रुच्छहे, रुच्छहो, रुच्छसु, रुच्छस्स < वृक्ष सप्त० ए० व०-हिं-रुच्छहिं । ऐतिहासिक रूप भी इसी तरह हैं। स्त्रीलिंग के रूपों में तृ०, चतु०, १०, सप्त० के अन्त में हे और हे प्रायः पाया जाता है। इस प्रकार खत्ताहे, रयिहें (< रति-)। सम्बोधन के बहुवचन के अन्त में हो होता है-अग्गिहो, महिलाहो। स्त्रीलिंग के इकारान्त और उकारान्त रूपों में 'क' भी होता है। स्त्रीलिंग के ईकारान्त और ऊकारान्त रूप पुल्लिंग के रूपों से घनिष्ठतया सम्बन्धित हैं। यद्यपि स्त्री० और पुं० के अकारान्त रूपों ने कुछ विशिष्टतायें रखी हैं | चतु०, पं०, ष० और सप्त० के सामान्य रूप (ये रूप यद्यपि प्राकृत से भिन्नता दिखाते हैं) न० भा० आ० के रूपों का निर्माण कर रहे थे। हम यह भी पाते हैं कि ब० व० और चतु०, पं०, और ष०, ए० व० के रूप क्षेत्रीय भिन्नतायें रखते हैं। पूर्वी और पश्चिमी अपभ्रंश के रूपों में कुछ भिन्नता है, पूर्वी-ह, पश्चिमी-हे, हु।
__ इस प्रकार कारक विभक्तियों में प्रायः भ्रम पैदा हो जाने की आशंका से-भाषा में परसर्ग का प्रचलन हो चला। होन्त, होन्तउ, और होन्ति का प्रयोग पंचमी के अर्थ में, केरअ और केर का प्रयोग षष्ठी के लिए और तण का प्रयोग तृतीया के भाव में प्रयुक्त होने लगा। विदित होता है कि इन परसर्गो का प्रयोग विभिन्न विभक्तियों के अर्थ में होता था। इन परसर्गों का प्रयोग आगे चलकर न० भा० आ० में बड़ा ही महत्वपूर्ण हो चला, तण और केर का प्रयोग अत्यधिक पाया जाने लगा। सर्वनाम शब्द रूप
सर्वनाम के रूप विभिन्न प्रकार के और विचित्र तरह के हैं जैसे-तुम्हार (तुंभार), आम्हार (आंभार), (सर्वनाम विशेषण); तइ (म्), मइ (म), (कर्म०, तृ०, सप्त०, ए० व०); तुह, तुहु, तुज्झ, महु, मज्झु (ष० ए० व०), तुम्हे, अम्हे (कर्ता० ब० व०); तुम्हहं, तुम्हाइं, अम्हहं (कर्म० ब० व०)। उत्तम और मध्यम पुरुष सर्वनाम के बहुत से रूप होते हैं। उत्तम०