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पंचम अध्याय प्राकृत वैयाकरण और अपभ्रंश व्याकरण
वररुचि
प्राकृत व्याकरण के सबसे पुराने वैयाकरण वररुचि माने जाते हैं। अपने प्राकृत प्रकाश नामक ग्रन्थ में वे केवल चार प्राकृत का ही वर्णन करते हैं। महाराष्ट्री का 1-9 परिच्छेद में, पैशाची का 10वें परिच्छेद में; मागधी का 11वें परिच्छेद में और शौरसेनी का 12वें परिच्छेद में वर्णन किया है। किन्तु यह ध्यान देने की बात है कि उन्होंने अपने प्राकृत व्याकरण में अर्धमागधी और अपभ्रंश का वर्णन नहीं किया है। वर्णन नहीं करने का कारण यह हो सकता है कि उन्होंने अर्धमागधी को आधा मागधी और आधा महाराष्ट्री के अन्तर्गत समझा हो। अपभ्रंश को प्राकृत से भिन्न भाषा समझने के कारण संभवतः उसका वर्णन अपने प्राकृत व्याकरण में नहीं किया। इस विचार में तथ्य का अभाव मिलता है। यह सर्वविदित सत्य है कि जैनी लोग अपनी लिपि की परम्परा की इज्जत करते हैं। उनकी परम्परा कभी टूटी नहीं। उनके आगमों की सुरक्षा विभिन्न स्थानों में हुई थी और जिनका एक जगह संग्रह किया गया था। यह 5 पाँचवीं शताब्दी में देवर्धिगणिन ने किया। संभवतः इसी कारण जब वररुचि ने प्राकृत का व्याकरण लिखा तो उस समय अर्धमागधी का साहित्य निश्चित नहीं हो पाया था। अतः हम वररुचि को 5 पाँचवीं शताब्दी पूर्व का मान सकते हैं । यह सदा से होता आया है कि जब साहित्य की उपलब्धि हो जाती है तब भाषा का व्याकरण लिखा जाता है। यही निष्कर्ष हम अपभ्रंश के उल्लेख न करने के कारण में भी निकाल सकते हैं। किन्तु पिशेल महोदय इस विचार से