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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
नाना देश समुत्थं हि काव्यं भवति नाटके।।
नाट्यशास्त्र-अ0 17, श्लो० 24, 46, 471 जिनदास महत्तर ने अर्धमागधी की 18 देशी भाषाओं की सूचना दी है। जैन सिद्धांत में भी राजकुमार ने गणिका आदि की 18 देशी भाषाओं में विज्ञता का वर्णन किया है। इससे विदित होता है कि पहले भारतवर्ष में 18 देशी भाषाओं की प्रतिष्ठा थी। ज्ञात सूत्र में भी इसी बात की चर्चा की गई है। विपाक श्रुत, औपपातिकसुत्त', राजप्रश्नीयसूत्र आदि में भी 18 देशी भाषाओं का वर्णन पाया जाता है। विक्रमं की नवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में कुवलयमालाकथा की रचना हुई थी। इसमें भी 18 देशी भाषाओं का वर्णन किया गया है। कुवलयमालाकथा में वर्णन आया है: 'क्षत्रिय राजकुलोत्पन्न आचार्य उद्योतन ने दक्षिण प्रदेश में बहादुर जावालिपुर नामक स्थान के ऋषभ जिनेन्द्रायतन में बैठकर शक संवत् 835, चैत्र कृष्ण पक्ष चतुर्दशी के अपराह में इस धर्मकथा की रचना की। उस समय श्रीवत्सराज नामवाले रणहस्ती पार्थिव विद्यमान थे। इस प्राचीन कथा का हस्तलिखित ताड़पत्र वि० सं० 1139 वर्ष के जेसलमेरु दुर्ग के जैन भांडागार में मिला है। वि० सं० 1160 में देवचंद्र सूरि ने तथा 13वीं शताब्दी में माणिक्यचंद सूरि ने इस कथा का शांतिनाथचरित में स्मरण किया है। रत्नाभ सूरि ने भी 14वीं शताब्दी के प्रारंभ में संस्कृत भाषा में संक्षेप रूप से अवतरित किया है। इस कुवलयमाला' की कथा को मुख्यतया छोटी-छोटी कथाओं में रचकर, प्राकृत भाषा में, कहीं कहीं कुतूहलवश दूसरे के वचनों को संस्कृत, अपभ्रंश और पैशाची भाषा में भी अनुबंधित किया है। इसी कारण देशी भाषा के लक्षण जानने वाले कवियों ने भी कुवलयमाला पढ़ने की प्रार्थना की है। श्री देवीप्रसाद विरचित कथा में जिन 18 देशी भाषाओं का वर्णन है उनमें 16 देशी बनियों के शरीरवर्ण, वेशभूषा तथा भाषा का स्वरूप भी बताया गया है। उन 16 देशों।० (प्रांत या क्षेत्रीय भाग) के नाम हैं गोल, मध्य देश, मगधांतर्वेदी, कीर, टक्क, सिंध, मरु, गुर्जर, लाट, मालव, कर्णाटक, तायिक, कोसल, महाराष्ट्र और आंध्र ।