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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
कर यहाँ शब्दों में कोई ध्वन्यात्मक परिवर्तन नहीं दीखता । तद्भव का अर्थ है संस्कृत के वे शब्द जो ध्वन्यात्मक परिवर्तन के साथ द्रविड़ भाषाओं में घुल मिल गए हैं। ऐसे बहुत से परिवर्तन ठीक उसी प्रकार हुए हैं जैसे प्राकृत व्याकरणं में पाए जाते हैं। तद्भव शब्दों के उदाहरण-तेलगु-आकासमु, सं० आकाश, मेगमु सं० मृग, वंकर सं० वक्र, पयाण सं० प्रयाण आदि। किन्तु वे शब्द जो इन दोनों में नहीं आते, यानी जिनकी व्युत्पत्ति का पता नहीं चलता किन्तु वे जनभाषा में प्रचलित हैं, देशी के अंतर्गत आएंगे। उदाहरण-तेलगु उरु=शहर, भेद-दुतल्ला मकान, इलु घर, होल=मैदान आदि। इस तरह देशी का अर्थ हुआ, वे शब्द जिनका संस्कृत से किसी प्रकार का संबंध नहीं है और जो कहीं से भी लिए गए हैं किंतु संस्कृत के नहीं हैं। वे शब्द देश्य वर्ग के अन्तर्गत रखे जाते हैं। यहाँ द्रविड़ वैयाकरणों का कथन ठीक उसी तरह है जिस तरह प्राकृत वैयाकरण अपना विचार रखते हैं। किंतु जहाँ पर इस तरह की समता है वहीं मतभेद भी है। जहाँ प्राकृत वैयाकरण संस्कृतभव प्रधान शब्दों को भी देशी में गिनते हैं और उसके लिये कोई कठोर नियम नहीं बनाते, वहीं द्रविड़ भाषाओं के वैयाकरण सभी शब्दों का संस्कृत से नहीं के बराबरं संबंध जोड़ते हैं। वस्तुतः द्रविड़ वैयाकरण देशी शब्द के विषय में मौन हैं । वे भी प्राकृत वैयाकरणों की तरह कहते हैं कि देशी की व्युत्पत्ति नहीं होती और वे भाषा के व्यवहार में प्रचलित हैं, उन्हें कवि लोग भी व्यवहार करते हैं।
यह सामान्यतया विश्वास किया जाता है कि परिनिष्ठित संस्कृत से जो' शब्द साहित्यिक प्राकृत के लिये लिए गए हैं वे थोड़ा क्षेत्रीय (कोलोकियल) भाषा से भिन्न हैं। यही वास्तविक प्राकृत थी। कुछ देशी शब्द संभवतः प्राकृत के अस्तित्व में आने के पूर्व से ही बोलचाल की भाषा में उपलब्ध थे। वे शब्द क्षेत्रीय भाषाओं से लिए गए
और क्षेत्रीय (कोलोकियल) भाषाएँ कभी भी साहित्य में मान्य नहीं रहीं। अतः उनसे हमारा लाभ नहीं हो सकता। हम यह भी संभावना कर सकते हैं कि भारत में आर्य लोग सहसा एक ही साथ नहीं आए। दो