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अपभ्रंश और देशी
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देशी के कुछ शब्द अवश्य मुंडा या द्रविड भाषा से लिए गए हैं। फिर भी अधिकांश शब्द मूल प्राकृत से ही लिए हुए हैं। यह मूल प्राकृत भाषा बाद में समाप्त हो गई। साहित्यिक पाली या प्राकृत से इनका कोई संबंध नहीं है। अतः इन शब्दों का सम्बन्ध संस्कृत से जोड़ना नितांत भ्रम है। वस्तुतः जो शब्द तद्भव हैं, जिन्हें वैयाकरणों ने उस भाव में नहीं लिया है, उन्हें प्राचीन बोलियों का प्रतिनिधि नहीं माना जा सकता। सत्य तो यह है कि देशी शब्द स्थानीय बोलियों के रूप थे, और जैसी संभावना की जाती है, वे अधिकांश शब्द गुजरात प्रदेश के साधारण साहित्य में प्रयुक्त भी होते थे। ऐसे शब्द मध्यदेश की परिनिष्ठित संस्कृत की प्रकृति से काफी भिन्न थे। फिर भी उन शब्दों का संबंध तद्भव से जोड़ा जा सकता हैं। .
इस प्रकार ग्रियर्सन महोदय का विश्वास है कि मूल प्राकृत की सुरक्षा कुछ न कुछ प्राकृत साहित्य में अवश्य है। वे शब्द न तो परिनिष्ठित संस्कृत से लिए गए हैं और न वैदिक संस्कृत से। अपितु वे उस मूल प्राकृत से लिए गए हैं जो वैदिक युग के आर्यों की बोली थी। उसी से वैदिक (छांदस) एवं परिनिष्ठित संस्कृत का विकास हुआ है। अतः देशी शब्द 'मध्य देश' के आसपास के प्रांतों की बोलियों से आए हुए शब्द थे। उन शब्दों में वैदिक एवं संस्कृत के प्रांतीय शब्द नहीं मिलते। अगर तत् पद से मूल प्राकृत का या संस्कृत का भाव लिया जाय तो उन देशी शब्दों में से अधिकांश शब्द तद्भव भी कहे जा सकते हैं। फिर भी देशी नाममाला में कुछ शब्द तो द्रविड़ भाषा के भी हैं ही।
यहाँ विचार करने के लिये हमें द्रविड़ भाषाओं के व्याकरणों को भी देखना चाहिए कि कैसे इन शब्दों की व्याख्या उन भाषाओं में की गई है। उनसे पता चलता है कि जैसे प्राकृत व्याकरण में शब्दों को तीन विभागों में बाँटा गया है-तत्सम, तद्भव और देशी-वैसे ही द्रविड़ भाषाओं में भी तत्सम वे शब्द हैं जो बिना किसी परिवर्तन के संस्कृत भाषा से लिए गए हैं। उदाहरणार्थ तेलगु-रामदु, विद्य, पित को वन, धन और वस्त्र; तमिल-कमलम् कारणम् आदि। अंतिम वर्ण को छोड़