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अपभ्रंश और देशी
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क्या भाषा को देशी कहने का प्रचलन है ?
__वस्तुतः भाषा कवियों ने प्रारंभ से ही अपने काव्य को देशी भाषा का काव्य कहा है। कुछ प्राकृत कवियों ने भी अपने काव्य को देशी भाषा का काव्य कहा है। तरंगवाई कहा' के लेखक पादलिप्त ने 500 ई० के आस-पास अपनी प्राकृत भाषा को 'देसी वयण' कहा है। 769 ई० में उद्योतन ने कुवलयमालाकहा में महाराष्ट्री प्राकृत को ही 'देशी' कहा है। कोऊहला ने भी लीलावाई काव्य में उसी महाराष्ट्री प्राकृत को देशी कहा है। यद्यपि लीलावाई में देशी शब्द मिलते हैं फिर भी एक स्थान पर कवि ने देशी भाषा को ही प्राकृत भाषा कह डाला है -
एमेय युद्धजुयई मनोहरं पाययाएं भासाए। पविरल देसी सुलक्खं कहसु कहं दिव्य माणुसियं ।।
है लीलावाई गाहा, 411 अपभ्रंश कवियों ने भी अपनी भाषा को 'देशी' कहा है। स्वयंभू ने अपने पउमचरिउ में अपनी कथा की भाषा को 'देशी भाषा' कहा है:
दीह समास पवाहालंकिय, सक्कय-पायय-पुलिणालंकिय। देसी भाषा उभय तडुज्जल, कवि दुक्कर घण सद्द सिलायल।।
__ पाहुड़ दोहा की भूमिका, पृ० 43 से उद्धृत इस पर डा० हीरालाल2 जैन का कहना है कि यद्यपि यहाँ पर स्पष्ट नहीं कहा गया है कि प्रस्तुत ग्रन्थ को कवि ने किस भाषा में रचा है किन्तु श्री जैन के मत में 'देसी भाषा' से कवि का अभिप्राय अपने काव्य की भाषा से है। कवि पुष्पदंत43 (965 ई०) ने अपने महापुराण की भाषा के लिये देशी का प्रयोग किया है। 10वीं शताब्दी के पद्मदेव ने पासणाइ चरिउ44 (पार्श्वनाथ चरित) को 'देशी सद्दत्थगाढ़' (देशी शब्द व अर्थ से गाढ़) कहा है। उसने स्पष्ट रूप से कहा है कि यद्यपि