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अपभ्रंश और देशी
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शंका प्रकट की थी, फिर भी डॉ० जैन ने उन चरणों का संस्कृत अनुवाद कर -
देशी वचनानि सर्वजनमिष्टानि।
तद् तादृशं जल्पे अपभ्रष्टम् ।। यह आग्रह प्रकट किया कि देशी ही अपभ्रष्ट है। उन्होंने तादृशं का अर्थ तदेव के भाव में किया है तद्वद् के अर्थ में नहीं। अतः उनके अनुसार अपभ्रंश और देशी एक ही वस्तु है।
यह सच है कि पतंजलि ने अपभ्रंश का प्रयोग संस्कृत से इतर सभी भाषाओं के लिये किया है-उसमें अर्धमागधी, शौरसेनी और महाराष्ट्री आदि सभी आ जाती हैं। किंतु यह स्मरण रखना चाहिए कि संस्कृत वैयाकरणों ने 'अपभ्रंश' का प्रयोग सदा भ्रष्ट के अर्थ में किया है, किसी विशिष्ट भाषा के अर्थ में नहीं। इस बात की पुष्टि दंडी के काव्यादर्श से भी होती है -
आभीरादि गिरः काव्येषु. अपभ्रंश इति स्मृता। शास्त्रेषु संस्कृतादन्यत् अपभ्रंश तयोदितम्।।
उपर्युक्त दूसरे चरण से पूर्वोक्त कथन की पुष्टि होती है। यहाँ पर शास्त्र पद से 'व्याकरण' ही समझना चाहिए। परंतु प्रथम चरण से यह स्पष्ट है कि अपभ्रंश एक भाषा है जो काव्य में प्रयुक्त होती थी। मुख्यतया यह आभीरादि लोगों की भाषा थी। अर्थात् अपभ्रंश एक सुनिश्चित रूपवाली भाषा थी जिसका अपना साहित्य तथा व्याकरण था। देशी की व्याख्या में हम देख चुके हैं कि 'देशी' का प्रयोग एक विशेष पारिभाषिक रूप में होता था। भरत मुनि ने नाटयशास्त्र के 17 वें अध्याय में जो देश भाषा का प्रयोग किया है वह वस्तुतः तत्तद् विशिष्ट देशों की बोलियों के लिए किया है। दूसरे रूप में कहना चाहें तो यह कह सकते हैं कि वे भाषायें उस उस प्रदेश की जनभाषा थीं। अपभ्रंश भाषा के भी जैसा कि सभी साहित्यिक भाषाओं में होता है दो रूप थे (1) साहित्यिक भाषा जो कि शिष्टों की भाषा होती है, (2) ग्राम्य