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अपभ्रंश और देशी
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उपर्युक्त वर्णन से प्रतीत होता है कि देशी भाषा बहुत प्रचीन भाषा है और यह संस्कृत तथा प्राकृत से भिन्न भाषा थी। इसका शब्दकोश आदि भी भिन्न था। पादलिप्ताचार्य आदि विरचित देशी शास्त्र के परिशीलन से देशी शब्द संग्रहों की सूचना मिलती है। हेमचन्द्रं द्वारा संकलित देशी शब्दों की सार्थकता भी परिलक्षित होती है। वात्स्यायन ने अपने कामसूत्र (1,4, 50) तथा विष्णुधर्मोत्तर में एवं शूद्रक ने मृच्छकटिकम् के अ० 6 पृ० 22.5 में तथा विशाखदत्त ने मुद्राराक्षस में, बाणभट्ट ने कादंबरी12 में एवं धनंजय ने दशरूपक में विभिन्न बोलियों या विभिन्न भाषाभाषियों के लिये देशभाषा शब्द का प्रयोग किया है :
देशभाषाक्रियावेशलक्षणाः स्युः प्रवृत्तयः । लोकादेवावगम्यैता यथौचित्यं प्रयोजयेत्।। यद्देशं नीचपात्रं यत् तद्देशं तस्य भाषितम्।।
दशरूपक, 2, 58, 611 धनंजय के पूर्वोक्त कथन पर ध्यान देना चाहिए कि उसने 'देशभाषा' का प्रयोग नीच पात्रों की भाषा के लिये किया है किंतु जैन सिद्धांत के बृहत्कल्प ग्रंथ में विभिन्न भाषाभाषियों की कुशलता प्रकट करने के लिये देशी भाषा का प्रयोग किया गया है : .
नाणा देसी कुसलो नाणा देसी कल्पस्स सुत्तस्स। अभिलावे अत्थकुसलो होई तओऽणेण संतव्वं ।।
बृहत्कल्प उ० 6, बृ० प० 831 | दंडी ने अपने काव्यादर्श में प्राकृत का भेद करते हुए बताया है कि प्राकृत के अनेक भेद होते हैं : तत्समः तद्भवो देशी इत्यनेकः प्राकृत क्रमः । विद्वानों ने13 तत्सम से तात्पर्य निकाला है-संस्कृतसम, तत्तुल्य, तथा समान शब्द । तद्भव से तात्पर्य है संस्कृतभव, संस्कृतयोनि, एवं तज्जविभ्रष्ट और देशी से मतलब है देशप्रसिद्ध या देशी मत । उपर्युक्त