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अपभ्रंश भाषा
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अपभ्रंश एक ही है। 'भेद इतना ही है कि जहाँ भोजपुरी, बंगला, मैथिली, आदि ने इउ का इल, अल कर दिया, वहाँ अवधी ने पहिले की तरह अउ, इउ, एउ को कायम रखा; ब्रज ने ओ और यो किया, जिसको कौरवी या हिन्दी तथा उसकी सहोदरा पूर्वी पंजाबी ने आ, ए (बहुवचन) बना के रखा। इस तरह अपभ्रंश जाणिउ, अवधी में जानेउ, ब्रज जानो, हिन्दी-पंजाबी में जाणा (जान लिया) या जाना बन गया ।105
निष्कर्ष यह कि समस्त उत्तर भारत में साहित्य के लिए एक ही शौरसेनी अपभ्रंश का प्रचलन था। जिस तरह पश्चिम भारत में शौरसेनी साहित्य का प्रचलन था उसी तरह पूर्वी भारत के कवियों ने भी साहित्य के लिये अपनी अपभ्रंश का प्रयोग न करके शौरसेनी अपभ्रंश का ही प्रयोग किया है। डा० सुनीति कुमार चाटुा ने कहा है कि शौरसेनी अपभ्रंश का प्रचलन समस्त उत्तर भारत में बहुत परवर्ती काल तक रहा। राजपूतों की शक्ति और प्रतिष्ठा ने मध्य भारत और गंगा के द्वावं में अपनी सत्ता स्थापित की और उसने इस अपभ्रंश का प्रतिनिधित्व किया। गुजरात के जैनियों ने भी इस अपभ्रंश को बड़ा महत्त्वपूर्ण बनाया। इससे इसने मिश्रित बोली का रूप धारण किया |106 पुनः आगे उन्होंने अपना विचार व्यक्त करते हुए लिखा है कि पश्चिमी या शौरसेनी अपभ्रंश समस्त उत्तर भारत की साहित्यिक भाषा थी। गुजरात और पश्चिमी पंजाब से लेकर बंगाल तक यह भाषा फैली हुई थी। संभवतः यह लिङ्वा फ्रांका की तरह और कोमल भाषा की तरह थी। इसी कारण यह काव्य के लिये सर्वोत्तम भाषा समझी गयी ।107 पूर्वी भारत के कवियों ने भी संभवतः इसी कारण इसे साहित्यिक भाषा का आधार बनाया। 3. पश्चिमी अपभ्रंश
पश्चिमी अपभ्रंश पहले लिख चुके हैं कि पूरे उत्तर भारत की तत्कालीन साहित्यिक भाषा अपभ्रंश थी। पश्चमी अपभ्रंश मूलतः