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अपभ्रंश भाषा
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सम्पृक्त कन्नौजी और बुंदेल खंडी ही निकली थी। इस प्रकार ई० 1000 की शौरसेनी ई० 1500 के लगभग व्रजभाषा, कन्नौजी और बुंदेली में परिणत हो गयी। मालवी और पूरबी राजस्थानी भी शौरसेनी अपभ्रंश से सम्बद्ध थी। पश्चिमी राजस्थानी (मारवाड़ी-गुजराती) भी इससे प्रभावित थी। पंजाब की बोलियों पर भी इसका प्रभाव पड़ा। हेमचन्द्र का अपभ्रंश गुर्जर या शौरसेनी
जैसा पहले लिख चुके हैं अपभ्रंश की अधिकांश रचनाएँ जैनियों द्वारा लिखी गयीं, अधिकतर जैनी गुजरात के थे। इस कारण आधुनिक कुछ गुजराती पंडितों ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि अपभ्रंश भाषा का उद्गम स्थल गुजरात है शूरसेन प्रदेश नहीं। इस बात की पुष्टि में उन लोगों ने आचार्य हेमचन्द्र को उद्धृत किया है। उन्होंने जिस अपभ्रंश भाषा का व्याकरण लिखा है वह गुर्जर अपभ्रंश का ही प्रतिनिधित्व करता है। दूसरी बात सरस्वती कण्ठाभरण में भोज ने जो यह लिखा है-अपभ्रंशेन तुष्यन्ति स्वेन नान्येन गुर्जराः। इस आधार पर गुजराती लेखक मधुसूदन मोदी ने यह दावा किया है कि गुजराती अपभ्रंश से ही अपभ्रंश साहित्य का विकास सर्वत्र हुआ। श्री मोदी जी का कहना है कि गुजराती से अपभ्रंश का घनिष्ठ सम्बन्ध है। उनका कहना है कि गुजराती का अपभ्रंश से गंगोत्री की झरना की तरह सम्बन्ध है। श्री केशवराम शास्त्री ने भी हेमचन्द्र के अपभ्रंश व्याकरण को 'गौर्जर अपभ्रंश' कहकर पुकारा है। किन्तु यदि विचार कर देखा जाय तो यह मत पक्षपात ग्रस्त दीखता है। सरस्वती कण्ठाभरण की उक्ति से यही निष्कर्ष निकलता है कि गुजराती लोग अपनी ही अपभ्रंश से अधिक सन्तुष्ट होते हैं दूसरों की अपभ्रंश से नहीं। इससे यह तात्पर्य नहीं निकलता कि गुजरात ही अपभ्रंश की उद्गम स्थली है। यह सच है कि गुजरात में अपभ्रंश के साहित्य अधिक लिखे गये। हेमचन्द्र ऐसा प्रसिद्ध अपभ्रंश वैयाकरण गुजरात का ही था। इसका यह मतलब कभी भी नहीं होता कि अपभ्रंश का उद्गम स्थल गुजरात ही था। हेमचन्द्र ने अपभ्रंश व्याकरण के