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अपभ्रंश भाषा
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साहित्यिक भाषा वाली महाराष्ट्री प्राकृत के आदर्श की छाप पड़ी । यह अपभ्रंश संस्कृत के असर से भी अछूती नहीं रह सकी है। हेमचन्द्र ने स्वतः अपभ्रंश व्याकरण के अन्त में शेषं संस्कृतवत् सिद्धम् कहकर इस बात की पुष्टि की है। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि इसने सर्वत्र संस्कृत की ही नकल की है। हेमचन्द्र के संस्कृतवत् सिद्धम् कहने का एकमात्र तात्पर्य यही है कि संस्कृत व्याकरणबद्धता के अनुकूल ही शास्त्रीय साहित्यिक अपभ्रंश भाषा की भी रचना हुई । वस्तुतः हेमचन्द्र की अपभ्रंश, पुष्पदन्त की अपभ्रंश और दोहा कोश की अपभ्रंश सब एक ही अपभ्रंश थी ।
हेमचन्द्र द्वारा वर्णित अपभ्रंश का स्वरूप
हेमचन्द्र ने चतुर्थ पाद के 329 सूत्र से 446 तक के सूत्रों में स्वतन्त्र रूप से अपभ्रंश भाषा का वर्णन किया है। इसमें परिनिष्ठित शौरसेनी अपभ्रंश का वर्णन किया गया है। हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों एवं उद्धृत दोहों के देखने से प्रतीत होता है कि हेमचन्द्र ने कई बोलियों को समन्वित करने का प्रयत्न किया
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है । पिशेल (प्राकृत व्याकरण (28) ने भी इस बात की ओर संकेत करते हुए लिखा है कि 'उसके नियमों को ध्यान से देखते ही यह निदान निकलता है कि अपभ्रंश नाम के भीतर उसने कई बोलियों के नियम दिये हैं।' इस बात की पुष्टि डा० ए० एन० उपाध्ये 13 ने भी की है। स्पष्टतः हेमचन्द्र ने कहीं भी किसी अपभ्रंश की बोली का उल्लेख नहीं किया है जैसा कि परवर्ती लेखक मार्कण्डेय तथा अन्य ग्रन्थकारों ने किया है। सावधानी से हेमचन्द्र के नियमों का अध्ययन करने से पता चलता है कि उनकी अपभ्रंश एक ही प्रकार की नहीं है। इसके अपभ्रंश में कई उप बोलियों का समन्वय है। इस बात की पुष्टि अपभ्रंश व्याकरण के प्रथम सूत्र 8/4/329 से होती है- प्रायो ग्रहणाद्यस्यापभ्रंशे विशेषो वक्ष्यते, तस्यापि क्वचित्प्राकृतवत् शौरसेनीवच्च कार्यं भवति । इसके विषय में पहले विचार किया जा चुका है। उदाहरण स्वरूप प्राकृत और