________________
150
हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
स्वीकार करते हुए डा० सुनीति कुमार चाटुा ने (भारतीय आर्य भाषा और हिन्दी पृ० 190) लिखा है कि यदि यह सही है तो महाराष्ट्री प्राकृत, शौरसेनी प्राकृत तथा शौरसेनी अपभ्रंश के बीच की केवल एक अवस्था मात्र सिद्ध हो जाती है। वररुचि के समय में ही यह भाषा (महाराष्ट्री शौरसेनी प्राकृत) आभ्यन्तर व्यंजनों के लोप के साथ अपनी द्वितीय भा० आ० तक पहुंच चुकी थी। इसी कारण हम देखते हैं कि हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण में प्राकृत यानि सामान्य व्याकरण पर विशेष लिखा गया है जो कि शौरसेनी प्राकृत की ही विशेषता बताता है। शौरसेनी प्राकृत का अपभ्रंश व्याकरण से घनिष्ठ सम्बन्ध जुड़ा दिखाई देता है। हेमचन्द्र ने 446 वें सूत्र में अपभ्रंशे प्रायः शौरसेनीवत् कार्यं भवति जो कहा है उससे इसी बात की पुष्टि होती है। यहाँ पर एक बात विचारणीय है कि जिस शौरसेनी प्राकृत का हेमचन्द्र ने वर्णन किया है उसका विशिष्ट व्याकरण तो उन्होंने बहुत कम लिखा है। यों तो 260 से 289 सूत्रों में ही शौरसेनी का व्याकरण लिखा है। विचार पूर्वक देखने से पता चलता है कि जिस सामान्य प्राकृत का व्याकरण उन्होंने लिखा है वह वस्तुतः शौरसेनी प्राकृत की ही विशेषता है। इनके प्राकृत व्याकरण के द्वितीय पाद का जो धात्वादेश है वह वस्तुतः अपभ्रंश का भी धात्वादेश है क्योंकि उस धात्वादेश के अधिकांश नियम अपभ्रंश के दोहों पर भी लागू होते हैं। अतः हेमचन्द्र का अपभ्रंश व्याकरण के अन्त में शेषं शौरसेनीवत् 8/4/446 कहना बहुत अधिक उचित है! इस प्रकार जब हम हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण पर दृष्टिपात करते हैं तो हमें निर्विवाद रूप से यह मान लेना पड़ता है कि हेमचन्द्र ने शौरसेनी अपभ्रंश का ही व्याकरण लिखा है जो कि अपभ्रंश का परिनिष्ठित रूप था। संभवतः इन्हीं सभी कारणों से एल० पी० तेस्सितोरि एवं पिशेल ने हेम अपभ्रंश को शौरसेनी अपभ्रंश कहा है। तेस्सि तोरि (पुरानी राजस्थानी भूमिका पृ० 5) महोदय का कहना है 'शौरसेन