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अपभ्रंश भाषा
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अपभ्रंश के बारे में अब तक हमारी जानकारी मुख्यतः हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण 4/329-446 सूत्रों के उदाहरणों और नियमों पर आधारित है। हेमचन्द्र 12वीं शताब्दी ई० (सं० 1144-1228) में हुए थे और स्पष्ट है कि उन्होंने जिस अपभ्रंश का परिचय दिया है, वह उनसे पहले की है; इसलिये इस प्रमाण के आधार पर हम हेमचन्द्र वर्णित शौरसेनी अपभंश की पूर्ववर्ती सीमा कम से कम 10वीं शताब्दी ईस्वी रख सकते हैं। हम देखते हैं कि जिस शौरसेनी अपभ्रंश का चित्रण हेमचन्द्र ने किया है उसी का प्रतिनिधित्व परवर्ती अपभ्रंश ने भी किया है। यह अपभ्रंश से अधिक विकसित भाषा का प्रतिनिधित्व करता है। प्राकृतपैंगलम् और संदेश रासक आदि इसके प्रमाण हैं। इस तरह हम पाते हैं कि 'मध्यदेशीय भाषा का प्रभुत्व अविच्छिन्न रूप से ईसा की प्रथम सहस्राब्दी के सारे काल में, और उससे पहले से भी, कायम रहा। वस्तुतः मध्यदेश भारत का हृदय और जीवन संचार का केन्द्र स्थल रहा है। यहीं से वैदिक संस्कृत-इसीसे मध्यदेशीय भाषा, शौरसेनी प्राकृत तथा अपभ्रंश का विकास हुआ। इसीसे व्रज भाषा, खड़ी बोली हिन्दी आदि की परम्परा चली। इसी तरह भारतीय आर्य भाषा की दूसरी परम्पराएँ भी हैं जैसे वैदिक, प्राच्या भाषा > मागधी प्राकृत और अपभ्रंश > भोजपुरी, मगही, मैथिली, असमिया, बंगला और उड़िया । तीसरी परम्परा भी मानी गयी है वैदिक > दाक्षिणात्या भाषा > विदर्भ में प्रचलित प्राकृत और अपभ्रंश > मराठी।
मध्यदेश वालों के विषय में 9वीं शताब्दी के राजशेखर ने कहा है :- यो मध्ये मध्य देशं निवसति, सकविः सर्वभाषा निषण्णः जो मध्यदेश के मध्य भाग में रहता है वह कवि सभी भाषाओं में प्रवीण होता है। शौरसेनी के पश्चात पश्चिमी अपभ्रंश का महत्वपूर्ण स्थान आया है। पश्चिमी अपभ्रंश का व्यवहार उत्तर भारत के राजपूत नृपति गणों की राजसभाओं में हुआ। यह हम पहले लिख चुके हैं कि इस महान साहित्यिक भाषा की परम्परा