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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
समस्त उत्तर भारत में फैल गयी थी। महाराष्ट्र से लेकर बंगाल तक इसकी महत्ता स्थापित थी। पूर्वी भारत के बंगाली कवि भी इसमें कविता करने में अपना गर्व अनुभव करते थे। 10 वीं शताब्दी से 12वीं शताब्दी तक साहित्यिक भाषा के रूप में तथा दैनिक व्यवहार की भाषा के रूप में इस भाषा का विकास एवं विस्तार बड़े प्रबल गति से हुआ। व्रजभाषा की साहित्यिक सत्ता स्वीकृत हो जाने के पूर्व तक इसकी सत्ता विराजमान थी। संभवतः इन्हीं सभी विचारधाराओं को अपनी दृष्टि में रखकर जैन आचार्य प्राकृत वैयाकरण हेमचन्द्र ने इसी अपभ्रंश का व्याकरण लिखा। इस अपभ्रंश की अधिकांश शब्द प्रक्रिया के बीज व्रज और हिन्दुस्तानी में अच्छी तरह पाये जा सकते हैं। इसका यह तात्पर्य कभी भी नहीं कि दूसरी न० भा० आ० भाषाओं में इसके बीज नहीं मिल सकते। अपभ्रंश से न० भा० आ० भाषाओं तक पहुंचने का एक और सोपान जरूर रहा होगा जिसे हम अवहट्ट कह कर पुकारते हैं। इसकी विशेषताएँ प्राकृतपैंगलम् एवं संदेश रासक आदि में देख सकते हैं। इसी बात की पुष्टि करते हुए श्री तेस्सितोरि ने कहा थाव्यावहारिक निष्कर्ष यह है कि हमारे लिये प्राकृत-पैंगलम् की भाषा हेमचन्द्र की अपभ्रंश और आधुनिक भाषाओं की आरंभिक अवस्था के बीच वाले सोपान का प्रतिनिधित्व करती है और यह दसवीं से ग्यारहवीं अथवा संभवतः बारहवीं शताब्दी के ईस्वी के आसपास की भाषा कही जा सकती है। इसी अवस्था के बाद आधुनिक भाषायें आती हैं। इसका प्रतिनिधित्व वास्तविकतया चन्दवरदायी की कविताओं में मिलता है जिसे कि हम प्राचीन पश्चिमी हिन्दी कह सकते हैं। इसका यह भी तात्पर्य नहीं है कि इसमें प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी के तत्व नहीं पाये जाते हैं। प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी से मतलब है गुजराती तथा मारवाड़ी। यह नाम सर्वप्रथम ग्रियर्सन ने दिया है अनन्तर तेस्सि तोरि ने इसी से पुष्टि की है। ग्रियर्सन 12 ने एक जगह मार्कण्डेय के अनुसार अपभ्रंश और ढक्की प्राकृत शीर्षक निबन्ध में लिखा है कि हेमचन्द्र का अपभ्रंश