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अपभ्रंश भाषा
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डा० तगारे103 ने इसको तीन भागों में विभक्त किया है। दक्षिणी अपभ्रंश, पूर्वी अपभ्रंश और पश्चिमी अपभ्रंश । 1. दक्षिणी अपभ्रंश
दक्षिणी अपभ्रंश का प्रतिनिधित्व करने वाले स्थान का नाम उन्होंने बरार दिया है। इसकी प्रमुख रचनाओं में पुष्पदन्त कृत महापुराण, नयकुमार चरिउ, जसहर चरिउ और कनकामर कृत करकण्ड चरिउ को रखा है। किन्तु अधिकांश विचारक इस विचार से सहमत नहीं हैं। इस मत को मत वाद ग्रस्त ठीक उसी तरह से मानते हैं जिस तरह कि गुजराती पण्डितों ने अपभ्रंश का मुख्य उद्गम स्रोत गुजरात को माना है। वस्तुतः जिसे डा० तगारे ने दक्षिणी अपभ्रंश कहकर पुकारा है-वह शौरसेनी अपभ्रंश ही है। सच्ची बात तो यह है कि साहित्यिक अपभ्रंश के रूप में शौरसेनी का विकास होता रहा है। समस्त उत्तर भारत में साहित्यिक रचना के रूप में शौरसेनी का ही प्रसार रहा है। डा० तगारे ने अपभ्रंश के ऐतिहासिक व्याकरण की रचना के समय जिन दक्षिणी तत्त्वों को दिखाया है उनमें आंशिक सत्यता अवश्य है। किन्तु जब किसी भी साहित्यिक रचना का निर्माण विस्तृत भूभाग में होने लगेगा तो यह स्वाभाविक है कि उस रचना में कुछ न कुछ क्षेत्रीय प्रयोग का प्रभाव पड़ जाये। इस कारण इसका दक्षिणी भेद करना उचित प्रतीत नहीं होता। 2. पूर्वी अपभ्रंश
पूर्वी अपभ्रंश की अधिकांश रचनाएँ सिद्धों आदि की हैं। इधर की रचनाओं पर बुद्ध धर्म का प्रभाव अधिक पड़ा है। संभवतः इसी कारण डा० शहीदुल्ला ने लेशाँ मिस्ती की भूमिका में इसे बौद्ध अपभ्रंश घोषित किया है। इसके प्रतिनिधित्व करने वाले कण्ह (कृष्णाचार्य) तथा सरह (शरस्तपाद) के दोहाकोशों एवं चर्यापदों को माना जाता है। कुछ विद्वानों ने इसे पूर्वी अपभ्रंश कहा है।