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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
शक्ति अर्जित कर अपना साम्राज्य बढ़ाने के प्रयत्न में लगे रहते थे। राजाओं में महत्त्वाकांक्षा की वृत्तियाँ अद्भुत हुआ करती थीं। राजदरबारों में राजाओं के गुणगान गाने वाले, उनकी शक्ति और शौर्य की प्रशंसा करने वालों में चारणों और भाटों की कमी नहीं हुआ करती थी। अवश्य ही ये लोग देशी भाषाओं का ही प्रयोग करते होंगे। चारण और वन्दी लोगों का वर्णन संस्कृत के महाकाव्यों में भी हुआ है। उस काल में या उससे कुछ पूर्व लिखे गये संस्कृत महाकाव्य किरातार्जुनीयम्, शिशुपालवधम् तथा नैषधीय महाकाव्यों में इन बन्दी जनों के वर्णनों से भी इसी बात की पुष्टि होती है। ये राजा लोग जहाँ एक ओर अपनी प्रतिष्ठा और मान मर्यादा की रक्षा के लिये संस्कृत को संरक्षण देते थे, ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा करते थे; जगह-जगह अपने नाम पर शिलालेख खुदवाते थे, वहाँ निश्चय ही सर्वसाधारण जनता की भलाई के लिये, अपने मनोविनोद के लिये तथा सबसे बढ़कर अपने यशः गौरव को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये देशी भाषा को प्रश्रय देते थे। उसका आदर सत्कार करते थे। अतः यह स्वाभाविक था कि इससे देशी भाषा के साहित्य को बढ़ावा मिलता। इसके पूर्व प्राकृत साहित्य में विशाल वाङ्मय रचा जा चुका था। बाद में चलकर प्राकृत साहित्य ने कृत्रिमता का रूप धारण कर लिया। फलतः उसमें गत्यवरोध का हो जाना स्वाभाविक था। दूसरी बात यह है कि पालि और प्राकृत को बढ़ावा देने वाले बौद्ध एवं जैन धर्म ने आगे चलकर संस्कृत को अपना लिया या उन धर्मों से उत्पन्न विभिन्न मत मतान्तरों ने देशी भाषाओं की शरण ली। इसका यह मतलब नहीं कि प्राकृत में रचनाएँ होती ही नहीं थी। होती अवश्य थीं किन्तु उनमें स्वाभाविकता की अपेक्षा कृत्रिमता का आधिक्य था। संस्कृत की कुछ विशिष्ट स्थिति रही। भारत में प्रारम्भ से ही नाना प्रकार के धर्मों के उत्थान पतन के साथ-साथ संस्कृत का विकास तथा प्रसार निरन्तर होता रहा। धर्मों के खण्डन मंडन एवं पाण्डित्य प्रदर्शन का माध्यम यही रही। बड़े-बड़े धर्माचार्यों के शास्त्रार्थ इसीमें होते रहे। फलतः निर्विवादरूप