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अपभ्रंश भाषा
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ने कहा था कि व्याकरण में संस्कृत से भिन्न शब्दों को अपभ्रंश कहते हैं। अपने विचार के अनुसार संस्कृत वैयाकरणों ने स्पष्ट रूप से बताया है कि किन परिस्थितियों में संस्कृत का विभ्रष्ट या अपशब्द ने अपना स्थान लिया तथा अशिक्षित लोग या सामान्य जनता किस प्रकार संस्कृत के शब्दों का शुद्ध उच्चारण करने में असमर्थ रही या असावधान रही। वाक्यपदीयकार" ने कहा कि शुद्ध उच्चारण करने में असमर्थता या उच्चारण के प्रति असावधानी के कारण शब्दों के विकृत हो जाने से अपभ्रंश की उत्पत्ति हुई । प्रायः समस्त वैयाकरणों ने संस्कृत से अपभ्रंश की उत्पत्ति के विषय में ही विचार दिया है । वार्तिककार ने इसका कारण अशक्तिजानुकरणं कहा है। भाष्यकार पतञ्जलि" ने भी इसी प्रकार का विचार व्यक्त किया है। उन्होंने प्राकृत क्रियाओं पर भी इसी प्रकार का विचार व्यक्त किया है कि आणपयति, वट्टति, वद्धति आदि संस्कृत आज्ञापय, वर्तते, वर्द्धते आदि का अपभ्रष्ट रूप है । भू आदि धातुओं को कात्यायन” निष्प्रयोजन नहीं कहता। इनका संस्कृत से प्राकृत और अपभ्रंश के रूप में परिवर्तन नहीं हो सकता। इस तरह संस्कृत वैयाकरणों शुद्ध और अशुद्ध उच्चारण का कारण एक ही तरह का बताया है। अशुद्ध उच्चारण के कारण कई हो सकते हैं- शारीरिक दोष, असावधानी, आर्थिक और सामाजिक परिस्थिति या शिक्षा का अभाव आदि बहुत से कारण हैं जिससे कि संस्कृत के उच्चारण में हास हुआ। हम देखते हैं कि वैयाकरणों के विचार कुछ भिन्न ही प्रकार के हैं। वे अपभ्रंश का प्रयोग अपभ्रष्ट के अर्थ में करते हैं । स्वतन्त्र भाषा के रूप में नहीं । भोजराज ने सरस्वती कण्ठाभरण में स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि संस्कृत और प्राकृत से भिन्न अपभ्रंश की सत्ता है ।
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अलंकारशास्त्रियों ने स्पष्ट रूप से अपभ्रंश भाषा की सत्ता स्वीकृत की है । कुछ ने इसे प्रान्त विशेष की भाषा माना है,. कुछ ने भाषात्रय में अपभ्रंश को बहुत महत्वपूर्ण माना है, कुछ ने काव्य, . नाटक आदि में प्रयुक्त होने वाली अपभ्रंश भाषा को महत्व दिया