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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
आधार भूमि प्राचीन वैयाकरणों एवं आचार्यों की विचारधारा ही है । मार्कण्डेय ने अपभ्रंश के तीन भेद किये हैं 1. नागर 2. उपनागर और 3. ब्राचड । साथ ही साथ उसने अपभ्रंश के 27 विभाषाओं का भी उल्लेख किया है। रामरत्न तर्कवागीश ने इस मत का विरोध करते हुए लिखा है कि विभाषाओं को अपभ्रंश के नाम से पुकारना नहीं चाहिये। विशेषकर तब जबकि वे नाटक के काम में लाये जाएँ। वस्तुतः अपभ्रंश तो वे भाषाएँ हैं जो कि जनता द्वारा बोली जाती थीं । वाग्भटालंकार ( 2-1 ) में भी इसी प्रकार की विचारधारा दी गयी है। एक ओर जहाँ अपभ्रंश को संस्कृत, प्राकृत और भूतभाषा यानी पैशाची के समकक्ष रखा है वहीं दूसरी ओर (2-3) लिखा है कि भिन्न-भिन्न देशों की विशुद्ध भाषा वहाँ की अपभ्रंश भाषा है - अपभ्रंशस्तु यच्छुद्धं तत्तद्देशेषु भाषितम् । इन्हीं सभी कारणों से पिशेल ने प्राकृत व्याकरण ( पृ० 2) में बौल्लेन सेन के मत का उद्धरण दिया है, उसने विक्रमोर्वशीय की भूमिका में रविकर के मत को उद्धृत करते हुए अपभ्रंश के दो भेद किये हैं। एक प्रकार की अपभ्रंश भाषा प्राकृत से निकली है । वह प्राकृत भाषा के शब्दों और धातुओं से बहुत मिलती जुलती है। दूसरी भाँति की भाषा देश भाषा है जिसे जनता बोलती थी। एक ओर संस्कृत और प्राकृत व्याकरण के नियमों का पूरा पूरा पालन किया जाता है तो दूसरे प्रकार की अपभ्रंश भाषा में जनता की बोली और मुहावरों का प्रयोग किया जाता है। इस मत की पुष्टि वाग्भट और रुद्रट की उक्तियों से होती है। पिशेल के विचारों से मिलता जुलता विचार ग्रियर्सन ने भी व्यक्त किया है। साहित्यिक प्राकृतों के प्रचीनतम नमूने संस्कृत नाटकों तथा उत्तम गीति काव्यों में पाये जाते हैं । प्राकृत में कुछ ऐसे प्रबन्ध काव्य लिखे गये थे जो कि बहुत बाद की रचना थी । ऐसे काव्य प्रो० जैकोबी" के अनुसार आजकल उपलब्ध नहीं है । किन्तु यह निश्चित है कि ऐसी रचनाएँ अर्ध शिक्षित या जनसाधारण के लिये लिखी गयी थीं। इन कृतियों में साधारण जनता के शब्दों का प्रयोग भी किया
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