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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
था। नागर अपभ्रंश तो. साहित्यिक रचना के लिये स्वीकृत थी। नागर का अर्थ नगरवासी चतुर, शिक्षित, गवई से विपरीत, लोगों की भाषा है। एक प्रकार के नागर, ब्राह्मण गुजराती भी होते थे। गुजरात की अपभ्रंश पर विशेष रूप से चर्चा आगे की जायेगी। किन्तु पहले लिख चुके हैं कि राजशेखर ने गुजराती और पश्चिमी राजस्थानीय अपभ्रंश का वर्णन किया है। कुछ लोगों का कहना है कि हेमचन्द्र ने अपभ्रंश व्याकरण में इन्हीं भूभागों का साहित्यिक उदाहरण दिया है जो कि समुचित विचार नहीं कहा जा सकता
है।
डा० ग्रियर्सन ने भी अपभ्रंश के दो रूप माने हैं। आधुनिक कुछ विद्वत्समुदाय भी इससे सहमत हैं। साहित्य में प्रयुक्त अपभ्रंश एक ही थी। इसके विकास में योगदान स्थानीय अपभ्रंश ने भी दिया था। इसका विकास बहुत दिनों से हो रहा था। वैदिक युग में भी बोलियाँ थीं इसका प्रमाण अपभ्रंश भाषा में मिलता है। द्वितीय, प्राकृत में व्याकरण सम्बन्धी बहुत से ऐसे प्रयोग मिलते हैं जो कि पाणिनीय व्याकरण से सिद्ध नहीं होते किन्तु वैदिक प्रयोगों में पाये जाते हैं। इसके कई उदाहरण हैं
(1) वेद में देवाः और देवासः दोनों हैं, संस्कृत में केवल 'देवः' रह गया, प्राकृत तथा अपभ्रंश में आसस्' (दुहरे जस्) का वंश 'आओ' आदि में चला।
(2) देवैः की जगह देवेभिः (अधरेहि) कहने की स्वतन्त्रता प्राकृत को रिक्थक्रम (विरासत) में मिली, संस्कृत को नहीं।
(3) संस्कृत में तो अधिकरण का 'स्मिन्’ सर्वनाम में ही बंध गया, किन्तु प्राकृत में 'म्मि, म्हि' होता हुआ हिन्दी में' तक पहुँचा।
(4) वैदिक भाषा का व्यत्यय और बाहुलक प्राकृत में जीवित रहा और परिणाम यह हुआ कि अपभ्रंश में एक विभक्ति ह' 'हँ'