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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
यहाँ आते थे, नोच खसोट के बाद भारतीय भाण्डागारों को जला फूंक कर चले जाते थे। हर्ष के बाद अपभ्रंश का स्वरूप
इस प्रकार राजा हर्ष के बाद भारत ने मुगल काल के पहले तक नाना प्रकार के उत्थान पतन के रूप देखे। नाना प्रकार की हजारों विचारधाराएँ गिरती उठती रहीं; उन्हीं विचारधाराओं को व्यक्त करने का अवलम्बन अपभ्रंश भाषा थी जिसे कि देशी या देश भाषा भी कहकर कुवलय माला में पुकारा गया है। इस दृष्टि से इस युग के सांस्कृतिक अध्ययन की अतीव आवश्यकता है। विना नवीन दृष्टि से अध्ययन किये, बाद की भाषाओं एवं साहित्य का निष्पक्ष अध्ययन नहीं हो सकता। लगभग 1025 ई० के अल-बेरूनी ने अपने वर्णन में भारत के विषय में उल्लेख किया है कि (उत्तर भारत में) भारतीय आर्य भाषा दो रूपों में विभक्त थी। एक उपेक्षित 'कथ्य भाषा' जिसका केवल जन साधारण में प्रचलन था, और दूसरी शिष्ट, सुशिक्षित उच्च वर्ग में प्रचलित 'साहित्यिक भाषा' थी। इसे बहुत से लोग विशेष अध्ययन कर प्राप्त करते थे। इसमें व्याकरणात्मक वाक्य रचना और छन्द अलंकार की बारीकियाँ भरी हुई थीं। इन दो रूपों के वर्णन करने के बावजूद भी उसने एक ही भाषा की गणना की है। सुसंस्कृत ब्राह्मण लोग संस्कृत को प्रचलित रखते थे। इसे प्रश्रय देने वाले क्षत्रिय तथा राजा लोग होते थे। किन्तु वे तथा निम्नवर्ग की जनता अपना सम्बन्ध अपभ्रंश, मिश्रित अपभ्रंश एवं देशी भाषा से रखती थी क्योंकि इसीमें चारणों की वीरगाथा काव्य, प्रेम-श्रृंगार, गीत एवं भक्ति काव्य आदि लिखे जाते थे।
हम देखते हैं कि 1000 ई० के बाद जब भारत में एक नये युग का सूत्रपात होता है, तब भारतीय भाषाओं को भी भारतीय विचारधाराओं एवं भारतीय संस्कृति को एक नयी दृष्टि से विचार करने एवं व्यक्त करने के लिये अपने को कटिबद्ध करना पड़ा।