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अपभ्रंश भाषा
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हुई है। कभी कोई राजा कुछ दिनों के लिये अपना सर उठाता है। अभी वह पूरा शक्ति सम्पन्न भी नहीं हो पाता कि उसे दूसरा धर दबाता है। विचारों में तथा मत मतान्तरों में भी यही संक्रान्ति की स्थिति छायी हुई है। पुरानी ब्राह्मण संस्कृति की खिलाफत तो पहले भी हो चुकी थी। किन्तु समय-समय पर इसकी स्थापना होती रहती थी। अब भी इसकी पुनर्स्थापना होती थी। किन्तु काल के प्रभञ्जन को कौन रोक सकता है ? इसकी लड़खड़ाती हुई स्थिति में संस्कृत भी लड़खड़ाती रहती। इसका यह मतलब नहीं कि संस्कृत में रचना ही नहीं होती थी। तात्पर्य यह कि. संस्कृत आचार्यों ने दूसरी ओर भी दृष्टिपात किया और अपभ्रंश की भी सत्ता स्वीकृत की। बौद्ध और जैन धर्मों की भी यही स्थिति थी। राजनीतिक दृष्टि से पूर्वी भारत के लड़खड़ा जाने से इन सम्प्रदायों के मठ तथा शिक्षा संस्थाओं के गढ़ भी उखड़ गये। इनके मतों में भी नाना प्रकार के विचार उत्पन्न होने लगे। बौद्ध धर्म के हीनयान
और महायान ने विविध प्रकार के मत मतान्तरों का रूप धारण किया। इन्हीं सबों ने वज्रयान, नाथ सम्प्रदाय, सहजिया सम्प्रदाय आदि को जन्म दिया। इन्हीं सबके परिणाम स्वरूप वाम मार्ग आदि का जन्म हुआ। जैनियों के 'श्वेताम्बर' और 'दिगम्बरों' ने भी कम करामात नहीं दिखाये। फिर भी इसने कुछ स्थिरता दिखायी। इन सभी बातों का परिणाम यह हुआ कि इन नाना मतमतान्तरों ने, नाना प्रकार की विचार धाराओं ने, देशी भाषा को अधिक महत्व दिया। प्रधान रूप से उसी भाषा में अपनी रचनाएँ कीं। उसी के परिणाम स्वरूप अपभ्रंश भाषा का महत्व बढ़ा। इस प्रकार की संक्रान्ति भारत में तो छायी हुई थी ही जिसे कि इतिहासकारों ने 'राजपूत काल' कहकर पुकारा है। उसी समय से, समय बेसमय विदेशियों का आक्रमण हो जाया करता था। ऐसी परिस्थिति में, इस संक्रान्ति काल में, भारत इन्हीं विचारधाराओं को लेकर अपना रूप और नक्शा तैयार करने को तत्पर ही होता था कि विदेशी आक्रामक उसे तहस नहस कर देते थे। वे लूटने की वृत्ति से