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अपभ्रंश भाषा
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इस समय तक प्राकृतों का युग बीत चुका था। प्रादेशिक अपभ्रंशों की राह से होती हुई प्राकृतें, परिवर्तित होकर, आधुनिक भारतीय भाषाएँ बन गई थीं। किन्तु इसका यह कभी भी मतलब नहीं था कि संस्कृत में रचनायें नहीं होती थीं। अब भी संस्कृत में प्रौढ़ रचनाएँ होती थीं। उसमें मनन चिंतन भी होता रहता था। फिर भी साधारणतया उत्तर भारत के अधिकांश भागों में, ईसा की प्रथम सहस्राब्दी के मध्य में आरम्भ हुई अपभ्रंश भाषा की परम्परा तुर्की-ईरानी के विजय तक बराबर चलती रही। अपभ्रंश भाषा की यह परम्परा आधुनिक भारतीय आर्य भाषा के पूर्णतया प्रस्फुटित पल्लवित हो जाने के बाद भी चलती रही। डा० सुनीति कुमार चटर्जी का कहना है कि इसका स्वरूप या तो विशुद्ध अपभ्रंश रहा अथवा देशी भाषाओं की लेखन पद्धति, शब्दावली तथा मुहावरों के रूप में अपभ्रंश वातावरण की छाप बनी रही। एक प्रकार की अर्द्ध-अपभ्रंश, अर्द्ध न० भा० आ० साहित्यिक भाषा बनी रही, जो हमें राजस्थान की डिंगल उपभाषा तथा पृथ्वीराज रासो आदि कई ग्रन्थों में मिलती है। हम देखते हैं कि 1400 ई० के लगभग भी अपभ्रंश की रचनायें होती रही हैं जिसे पूर्वी भारत में विद्यापति ने 'अवहट्ट' (अपभ्रष्ट) कहा है तथा पश्चिम भारत में अब्दुर्रहमान ने जनता की भाषा कहा है। यहाँ तक कि ई० 15वीं शताब्दी के अन्त तक अपभ्रंश की संकलित 'प्राकृत पैंगलम्' की रचना होती रही। आधुनिक भाषा वैज्ञानिकों के अनुसार अपभ्रंश
___ आधुनिक भाषा विज्ञान के पण्डितों ने अपभ्रंश भाषा पर नये तरीके से विचार किया है। इन पण्डितों ने अपभ्रंश के दो . रूप माने हैं। एक साहित्यिक अपभ्रंश जिसकी कि उत्पत्ति साहित्यिक प्राकृत से मानी है और दूसरे प्रकार की अपभ्रंश क्षेत्रीय या प्रान्तीय अपभ्रंश है जिससे कि आधुनिक भारतीय आर्य भाषाएँ प्रादुर्भूत हुई हैं। इस मत के परिपोषकों में प्रमुख हैं पिशेल, ग्रियर्सन, भाण्डारकर और डा० एस० के० चटर्जी आदि। इस मत की स्थापना की