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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
है। रुद्रट ने स्पष्ट रूप से अपभ्रंश की महत्ता तो स्वीकृत की ही है साथ-ही-साथ उसने देश भेद से इसके बहुत से भेद माने हैं। प्रसंगवश अपभ्रंश की व्याख्या करते हुए उसकी सत्ता में एक पद्य भी उद्धृत किया है। इन सभी बातों की चर्चा पहले की जा चुकी है। अपभ्रंश के प्रारूप जहाँ भरत के नाट्य शास्त्र में प्राप्त होता है वहीं सर्वप्रथम कालिदास के विक्रमोर्वशीय नामक माटक में अपभ्रंश के कुछ पद पाये जाते हैं। यद्यपि इन पदों के विषय में लोगों ने संदेह पैदा किया है कि क्या वस्तुतः ये पद कालिदास के ही हैं ? क्योंकि कालिदास के अन्य नाटकों में अपभ्रंश के पद नहीं हैं। स्वभावतः यह सन्देह का विषय बन जाता है। जैकोबी जैसे प्राकृत और अपभ्रंश के पण्डित ने भी इसी प्रकार का विचार व्यक्त किया है। किन्तु अन्तः साक्ष्य के आधार पर विद्वानों ने यह निर्णय किया है कि विक्रमोर्वशीय के चौथे अंक का जो अपभ्रंश है वह वस्तुतः धनपाल के अपभ्रंश से भिन्न है। साथ ही साथ हम यह भी देखते हैं कि नाटकों के अपभ्रंश को लेखकों ने प्रायः साहित्यिक प्राकृत के बहुत समीप ढाल दिया है। इसी कारण कभी-कभी अपभ्रंश और प्राकृत के भेद में भी संदेह हो जाता है। यही स्थिति विक्रमोर्वशीय के विषय में भी है। फिर भी अधिकांश विद्वानों ने इसे अपभ्रंश ही कहा है। अगर अन्वेषण किया जाए तो शाकुन्तलम् में भी कुछ न कुछ अपभ्रंश के बीज मिल ही जायेंगे। साहित्यिक कृत्रिम प्राकृत की ओर अधिक आकर्षण होने के कारण सभी चीजों को ऐसा ढाल दिया गया है कि भ्रम बना ही रहता है। प्रारम्भ से ही कुछ इस प्रकार. का घुला मिला विचार व्यक्त किया जाता रहा है कि जिससे
संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के विषय में स्पष्ट निर्णय नहीं हो . पाता। आधुनिक विद्वानों ने बहुत कुछ इन गुत्थियों को सुलझाने
का प्रयत्न किया है। समस्त संस्कृत, वाङ्मय की छानबीन की जाय तो प्रतीत होगा कि प्राकृत और अपभ्रंश को संस्कृत के परिवेश में ही देखा गया है। शब्दों पर विचार करते समय संस्कृत की