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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
सुराष्ट्रावन्ति देशेषु वेत्रवत्यन्तरेषु च। ये देशास्तेषु कुर्वीत चकार बहुलामिह । 160।। हिमवत्सिन्धुसौवीरान् येऽन्यदेशान् समाश्रिताः । उकार बहुलां तेषु नित्यं भाषां प्रयोजयेत्।।61।। चर्मण्वती नदी पारे ये चार्बुद समाश्रिताः । तकार बहुलां नित्यं तेषु भाषां प्रयोजयेत्।।62।।
पूर्वोक्त उदाहरणों में जिस उकार बहुला रूप की चर्चा की गयी है वह वस्तुतः अपभ्रंश की विशेषता है। भरत ने किसी खास बोली का उल्लेख न करके हिमालय और सिन्धु के पार्श्ववर्ती स्थान मात्र का नाम लिया है। परवर्ती अपभ्रंश के लेखक एवं वैयाकरणों ने इसका उल्लेख किया है। भरत ने बोली के लिये जिस उकार ध्वनि का निर्देश किया है वह उसके समय बोली जाती थी। इसका स्थान सिन्ध, सौवीर और उत्तरी पंजाब था। ऐसा प्रतीत होता है कि सर्वप्रथम वहीं पर आभीर (अहीर), जानवर चराने वाले गड़ेरिये आदि ने अपना निवास स्थान बनाया था। चारागाह के ख्याल से यानी भौगोलिक दृष्टि से यह स्थान उन लोगों के लिये बहुत उचित था।
32वें अध्याय में भरत ने जो वर्णन एवं चित्रण किया है उससे अपभ्रंश का संकेत मिलता है। अर्थात् ये रूप प्रारम्भिक अवस्था के द्योतक हैं।37
(1) मोरुल्लउ नचन्तउ। महागमे संभत्तउ। (2) मेहउ हेर्तुतु णेई जोण्हउ। णिच्च णिप्पहे एहु चंदहु। (3) एसा बहूहि काणणउ।
गंतु जु उस्सुइया कंतं संगइया।।