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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
और दूसरे लोग सुष्ठु (अच्छी) वाणी में अर्थात् संस्कृत मुहावरों का प्रयोग करते हैं। किन्तु वे लोग हमेशा संस्कृत के वचनों में भी अपभ्रंश की मिलावट कर दिया करते हैं।"
अगर हम मरु, टक्क और भादानक के साहित्यिक लोगों के साथ सुराष्ट्र और त्रवण आदि के भागों को जोड़ देते हैं तो ये सब भाग एक साथ मिलकर अपभ्रंश साहित्य का एक विस्तृत क्षेत्र हो जाता है। यह एक विशाल भूभाग का समृद्ध साहित्य प्रतीत होता है। इस तरह प्राकृत के ज्ञान के विषय में और अपभ्रंश साहित्य के विषय में जो आधुनिक प्रान्तों का निर्माण हो रहा है उससे इस पर और प्रकाश पड़ता जा रहा है।
प्रतीत होता है कि राजशेखर के समय में अपभ्रंश की लोकप्रियता चरम कोटि पर पहुँच गयी थी। सुराष्ट्र और मारवाड़ में मुख्यतया इस साहित्यिक अपभ्रंश भाषा का प्रचार और प्रसार अधिक बढ़ रहा था। यह अब तक जीवित भाषा थी और इसकी रचना विनष्ट नहीं हुई थी। यह अब तक जन सामान्य की बोली या बहुत सी बोलियों में परिणत चुकी थी।
(1) राजशेखर ने एक अन्य जगह सुझाव दिया है कि सभी भृत्य कार्य करने वाले पुरूषों को अपभ्रंश कविता से अच्छी तरह परिचित रहना चाहिये। उसने लिखा है कि स्त्रियों को मागध भाषा की जानकारी होनी चाहिये। राजा के अन्तःपुर में रहने वाले को संस्कृत और प्राकृत की जानकारी रखनी चाहिये और उनके दोस्तों को सभी भाषाओं में निपुण होना चाहिये।
(2) इसके अतिरिक्त उसने और सुझाव दिया है कि संस्कृत कवियों को वैदिक मन्त्रों के साथ बैठना चाहिये। तर्कशास्त्र, पुराण और स्मृति को जानने वाले, प्राणि शास्त्र के ज्ञाता, खगोल शास्त्रविद् इसी प्रकार और लोग भी तथा प्राकृत कवि पूर्व में बैठे। उनके बाद नृत्य वाले संगीतज्ञ, गायक, वादक आदि बैठें,05 पश्चिम में अपभ्रंश के कवि बैठें। उसके बगल में दीवाल रंगने वाला, आभूषण बनाने वाला, स्वर्णकार आदि बैठें, दक्षिण में पिशाच कवि तथा उसके बगल में और लोगों के बैठने का वर्णन है।